दैनिक भास्कर (दिल्ली)
2 सितंबर 2009
भाजपा को बचाएगा नया हिंदुत्व
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अगर आज भाजपा बिखर जाए तो क्या होगा ? देश का बड़ा अहित हो जाएगा| स्वयं प्रधानमंत्री ने यह चिंता व्यक्त की है| वे देश का रथ चला रहे हैं| रथ का दूसरा पहिया टूट जाए तो रथ चलेगा क्या ? रथ का यह दूसरा पहिया हिल जरूर रहा है लेकिन यह इतना कमजोर नहीं है कि टूट जाए| इसका हश्र वह नहीं हो सकता, जो जनता पार्टी, स्वतंत्र् पार्टी या संसोपा का हुआ| ये पार्टियां या तो नेता-आधरित पार्टियॉं थीं या तदर्थ हल की पार्टियॉं थीं| संसोपा के पीछे जबर्दस्त विचारधारा जरूर थी लेकिन डॉ. राममनोहर लोहिया के पर्दे से हटते ही यह पार्टी भी नेपथ्य में चली गई| वह नेताओं की पार्टी थी| उसमें हर कार्यकर्त्ता छोटा-मोटा नेता था| भाजपा की खूबी यह है कि इसके पास विचारधारा भी है और तपस्वी कार्यकर्ताओं की फौज भी| इसमें नेता नहीं हैं| जो नेता दिखाई पड़ते हैं, वे भी कार्यकर्ता ही हैं| यदि इस पार्टी में सचमुच नेता होते तो यह कभी की टूट जाती| मौलिचंद्र शर्मा हों या बलराज मधोक, वीरेंद्र सकलेचा हों या शंकरसिंह वाघेला, उमा भारती हों या कल्याण सिंह, गोविंदाचार्य हों या जसंवतसिंह- सब के सब खुद ही अलग-थलग पड़ गए| कोई भी जनसंघ या भाजपा का बाल भी बांका नहीं कर पाया| यहां तक कि लालकृष्ण आडवाणी जैसा महाप्रतापी नायक भी मन मसोस कर रह गया| जिसके पुण्य-प्रताप से भाजपा के दो से सौ सांसद हो गए, वह भी पार्टी को तोड़ नहीं पाया| इसीलिए भाजपा आज भी 'औरों से अलग' (पार्टी विथ ए डिफरेंस) है| इसका टूटना मुश्किल है और इसका खत्म होना लगभग असंभव !
भाजपा का खत्म होना इसलिए असंभव है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसकी रीढ़ है और हिंदुत्व इसकी विचारधारा ! अपनी समस्त कमज़ोरियों के बावजूद दुनिया में ऐसे कितने संगठन हैं, जिनकी तुलना संघ से की जा सके ? जहां तक हिंदुत्व का सवाल है, वह चाहे जो बाना पहनकर आए, भारत में उसकी अपील सदा बनी रहेगी| गांधी, जिन्ना, बादशाह खान, लोहिया और डांगे भी उससे अछूते नहीं रहे| क्या हिंदुत्व के बिना भारत की कल्पना की जा सकती है ? जैसे कांग्रेस भारत की अजर-अमर पार्टी है, वैसे ही भाजपा भी रहेगी| इसीलिए असल सवाल यह नहीं है कि भाजपा रहेगी या नहीं रहेगी बल्कि यह है कि क्या वह दुबारा सत्ता में आ पाएगी ?
उसके नेताओं को दुबारा सत्ता में आना दुश्वार लग रहा है| यह दुश्वारी ही फूट-फूटकर बह रही है| कभी वह जिन्ना का रूप धारण कर लेती है तो कभी पटेल का| कभी वह कंधार बन जाती है तो कभी संसद में नोटों की गडि्रडयां| संघ कहता है, हम भाजपा में कोई हस्तक्षेप नहीं करते और एक अ-नेता कहता है कि भाजपा को संघ अपने शिकंजे में कस ले| असली झगड़ा यही है| द्वंद्व यही है| पेंच यही है| इस पेंच को खोले बिना भाजपा जहां खड़ी है, वहीं खड़ी रह जाएगी या उससे भी नीचे खिसक जाएगी| आठ राज्य सरकारें और 116 सांसद पलक झपकते अंतर्ध्यान हो सकते हैं| भाजपा में नेता कई हैं लेकिन आडवाणी जैसा कौन है ? अच्छी या बुरी, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय छवि किसकी है ? और आडवाणी को हटा देने पर भाजपा क्या अपने अन्तर्द्वंद से मुक्त हो जाएगी ? ज्यों-ज्यों भाजपा बढ़ेगी, गैर-स्वयंसेवकों का अनुपात भी बढ़ेगा| अभी संघ अपने बूढ़े स्वयंसेवकों से भिड़ रहा है| जब जवान गैर-स्वयंसेवक शीर्ष पर होगे तो क्या होगा ?
संघ का कहना है कि भाजपा इसीलिए पिछड़ी कि उसने हिंदुत्व को खूंटी पर टांग दिया| सत्ता में बने रहने के लिए धारा 370, समान सिविल कोड और राम मंदिर को दरी के नीचे सरका दिया| यहां तक कि नरेंद्र मोदी को दंडित करने की पेशकश की| पाकिस्तान की दाढ़ी में हाथ डाला| कारगिल के अपराधी से हाथ मिलाया| मदरसों को थपथपाया| राम मंदिर नहीं बनाया| हिंदी, हिंदू और हिंदुस्थान-तीनों को भूल गए| बात ठीक है | यह सब हुआ लेकिन प्रश्न यह है कि जो लोग 50-50 साल तक संघ के स्वयंसेवक रहे, वे रातों-रात कैसे बदल गए ? अटलजी तो अटलजी, आडवाणीजी को क्या हो गया ? वे जिन्ना के प्रशंसक कैसे बन गए ?
भाजपा के नेता इन प्रश्नों पर मौन दिखाई देते हैं लेकिन ऐसा नहीं है| वे बोलते हैं लेकिन दबी जुबान से ! कुछ जुबान भी नहीं खोलते| अंदर ही अंदर घुटते हैं| वे पूछते हैं कि बताइए, हम राजनीतिक दल हैं या भजन-मंडली ? क्या जिदंगी भर हम दरियां बिछाते रहें और झांझ कूटते रहें ? यदि हमें सत्ता में नहीं बैठना है तो हम राजनीतिक पार्टी ही क्यों हैं ? हम सांस्कृतिक संगठन ही क्यों न बने रहें ? हम चुनाव क्यों लड़ें ? सरकार क्यों बनाएं ? धारा 370, समान सिविल कोड और राम मंदिर हम नहीं छोड़ते तो सरकार कैसे बनाते ? राम मंदिर छोड़ने का दुख है लेकिन उसे छोड़े बिना सत्ता के मंदिर में कैसे बैठते ? 22 राजनीतिक दलों का गठबंधन कैसे खड़ा करते ? अगर हम हिंदुत्व पर डटे रहते तो संसद में साधारण बहुमत बनाना भी असंभव होता| हिंदुत्व के नाम पर यदि सत्ताप्रेमी पार्टिया भी साथ नहीं आती हैं तो क्या सामान्य जनता आ जाती ? क्या केवल 20 प्रतिशत वोट और 200 सांसदों से कोई सरकार बन सकती है ? क्या आप किसी ऐसे क्षण की कल्पना कर सकते हैं, जब भाजपा को 40-45 प्रतिशत वोट और 300 सीटें मिल सकें ? यह तो शायद तभी हो सकता है कि जबकि भारत के सिर पर दूसरे विभाजन की तलवार लटकने लगे या देश में हजार गोधरा एक साथ हो जाएं ? सत्ता में आने के लिए क्या हमें इतनी बुरी बात कभी सोचनी भी चाहिए ? तो क्या करें ? सबसे पहले यह तय करें कि हमें सत्ता में आना है या नहीं ? यदि आना है तो सत्ता के तर्कों को समझें|
यह मामला सिर्फ अटलजी और आडवाणीजी का ही नहीं है| सबका है| नेहरू का और जिन्ना का भी| हिंदू-मुस्लिम एकता के अलमबरदार नेहरू को द्विराष्ट्रवाद के आगे घुटने टेकने पड़े और मुस्लिम सांप्रदायिकता के सिरमौर जिन्ना को पाकिस्तान बनने के बाद शीर्षासन करना पड़ा| सत्ता में आने और उसमें बने रहने के लिए क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़ते ? ज़रा कांग्रेस का इतिहास देखें| 1885 से अब तक उसने इतने पल्टे खाए हैं कि वह किसी बहरूपिए से कम नहीं रह गई है| पहले अंग्रेज का समर्थन, फिर आंशिक और बाद में पूर्ण आज़ादी की मांग, पहले गांधीवाद, फिर नेहरू का समाजवाद और फिर राजीव और नरसिंहराव का उदारवाद और अब वंशवाद ! यदि कांग्रेस में इतना लचीलापन नहीं होता तो वह कब की ही इतिहास के खंडहरों में समा जाती| उसकी एक ही विचारधारा है - सत्ता-प्राप्ति ! सत्ता से अगर कुछ सेवा हो जाए तो बहुत अच्छा| वरना सत्ता से पत्ता और पत्ता से सत्ता का अनंत खेल तो चलता ही रहता है| यही खेल बि्रटेन, अमेरिका या योरोपीय देशों में चलता है| वहां पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों एक ही रथ के दो पहिए होते हैं, पति-पत्नी की तरह ! कभी इसकी टोपी उसके सिर और कभी उसकी टोपी इसके सिर ! विचारधारा कहीं भी आड़े नहीं आती| विचारधारावाला कौनसा दल अब दुनिया में बचा है ? मुसोलिनी, हिटलर, स्तालिन, माओ की पार्टियॉं कहॉं हैं ?
भाजपा के नेता इस तथ्य को खूब समझते हैं लेकिन सिर्फ उनके बदलने से क्या होगा ? उनकी बात जब तक संघ के गले नहीं उतरेगी, वे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते ? ऐसा नहीं है कि संघ जड़ है| जिन्ना के बावजूद आखिर आडवाणी की पुन: प्रतिष्ठा कैसे हुई ? जसवंत के जिन्ना पर संघ क्यों नहीं बोला ? उसने भाजपा से अधिक परिपक्वता का परिचय दिया| संघ और भाजपा का संबंध नाभि-नाल संबंध है| संघ के बिना भाजपा शून्य है लेकिन अगर वह पुरानी लीक पर ही चलती रही तो वह अंततोगत्वा क्या स्वयं शून्य नहीं बन जाएगी याने संघ और भाजपा को एक साथ बैठकर चिंतन करना होगा| हिंदुत्व की पुनर्परिभाषा और नवीनीकरण समय की मांग है| क्या हिंदुत्व वही है, जो मुस्लिम लीग के जवाब में पैदा हुआ था ? 1906 के पहले तो किसी ने 'हिंदुत्व' शब्द भी नहीं सुना था| क्या राजा राममोहन राय, महर्षि दयानंद, विवेकानंद और अरबिन्दो का 'हिंदुत्व' और सावरकर का हिंदुत्व एक-जैसा है ? क्या हिंदुत्व की शुरूआत मुगल-काल से ही होती है, क्या गज़नी और गोरी के बाद ही होती है? क्या हिंदू-मुसलमान के मुद्रदे ही हिंदुत्व के मुद्रदे हैं ? क्या इस्लाम के पहले हिंदुत्व नहीं था ? क्या मुस्लिम-विद्वेष ही हिंदुत्व का एकमात्र् आधार है ? यदि भारत और पाकिस्तान एक रहते तो क्या वह अखंड भारत हो जाता ? क्या कभी हमने उस हिंदू भारत के बारे में भी सोचा है, जो तिब्बत (त्र्िविष्टुप) से मालदीव और अराकान (बर्मा) से खुरासान (ईरान) तक फैला हुआ था| हम इस आर्यावर्त्त में एकता, शांति और समृद्घि चाहते हैं या नहीं ? यदि चाहते हैं तो क्या हम अपनी घड़ी की सुई को 1947 पर ही अटकाए रखेंगे ? क्या हिंदुत्व का मतलब केवल धारा-370, समान सिविल कोड और राम मंदिर ही है ? क्या हमारे पास कोई ऐसी रामबाण औषधि नहीं है, जो हमारी राजनीति को हिंदू-मुसलमान और भारत-पाक के अजीर्ण से मुक्त करवा सके| क्या हिंदुत्व को हम किसी से नत्थी किए बिना नहीं समझ सकते ? क्या हिंदुत्व भारतीयता का पर्याय नहीं हो सकता, जिसमें सारे मज़हब, सारे दक्षिण एशियाई देश और उनके सारे लोग बिना किसी भेद-भाव के शामिल हो सकें ? मैं हिदुत्व को सिकोड़ने नहीं, फैलाने की बात कर रहा हूं| यदि हिंदुत्व अपने इतिहास और भूगोल में जरा फैल जाए तो भाजपा को वास्तविक और उत्तम राजनीतिक दल बनने में जबर्दस्त सफलता मिल सकती है| यह नया हिंदुत्व यथास्थितिवादी और सिर्फ पीछेदेखू नहीं होगा| यह परंपरा और परिवर्तन का सुंदर समन्वय होगा| यह कोरे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात नहीं करेगा| यह आर्थिक और सामाजिक राष्ट्रवाद का भी पुरोधा होगा| उसमें अपने 'समग्र राष्ट्रवाद' से भी आगे देखने की क्षमता होगी| वह भारत की सनातन विश्व-चेतना का प्रामाणिक प्रतिनिधि होगा|
भाजपा का खत्म होना इसलिए असंभव है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसकी रीढ़ है और हिंदुत्व इसकी विचारधारा ! अपनी समस्त कमज़ोरियों के बावजूद दुनिया में ऐसे कितने संगठन हैं, जिनकी तुलना संघ से की जा सके ? जहां तक हिंदुत्व का सवाल है, वह चाहे जो बाना पहनकर आए, भारत में उसकी अपील सदा बनी रहेगी| गांधी, जिन्ना, बादशाह खान, लोहिया और डांगे भी उससे अछूते नहीं रहे| क्या हिंदुत्व के बिना भारत की कल्पना की जा सकती है ? जैसे कांग्रेस भारत की अजर-अमर पार्टी है, वैसे ही भाजपा भी रहेगी| इसीलिए असल सवाल यह नहीं है कि भाजपा रहेगी या नहीं रहेगी बल्कि यह है कि क्या वह दुबारा सत्ता में आ पाएगी ?
उसके नेताओं को दुबारा सत्ता में आना दुश्वार लग रहा है| यह दुश्वारी ही फूट-फूटकर बह रही है| कभी वह जिन्ना का रूप धारण कर लेती है तो कभी पटेल का| कभी वह कंधार बन जाती है तो कभी संसद में नोटों की गडि्रडयां| संघ कहता है, हम भाजपा में कोई हस्तक्षेप नहीं करते और एक अ-नेता कहता है कि भाजपा को संघ अपने शिकंजे में कस ले| असली झगड़ा यही है| द्वंद्व यही है| पेंच यही है| इस पेंच को खोले बिना भाजपा जहां खड़ी है, वहीं खड़ी रह जाएगी या उससे भी नीचे खिसक जाएगी| आठ राज्य सरकारें और 116 सांसद पलक झपकते अंतर्ध्यान हो सकते हैं| भाजपा में नेता कई हैं लेकिन आडवाणी जैसा कौन है ? अच्छी या बुरी, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय छवि किसकी है ? और आडवाणी को हटा देने पर भाजपा क्या अपने अन्तर्द्वंद से मुक्त हो जाएगी ? ज्यों-ज्यों भाजपा बढ़ेगी, गैर-स्वयंसेवकों का अनुपात भी बढ़ेगा| अभी संघ अपने बूढ़े स्वयंसेवकों से भिड़ रहा है| जब जवान गैर-स्वयंसेवक शीर्ष पर होगे तो क्या होगा ?
संघ का कहना है कि भाजपा इसीलिए पिछड़ी कि उसने हिंदुत्व को खूंटी पर टांग दिया| सत्ता में बने रहने के लिए धारा 370, समान सिविल कोड और राम मंदिर को दरी के नीचे सरका दिया| यहां तक कि नरेंद्र मोदी को दंडित करने की पेशकश की| पाकिस्तान की दाढ़ी में हाथ डाला| कारगिल के अपराधी से हाथ मिलाया| मदरसों को थपथपाया| राम मंदिर नहीं बनाया| हिंदी, हिंदू और हिंदुस्थान-तीनों को भूल गए| बात ठीक है | यह सब हुआ लेकिन प्रश्न यह है कि जो लोग 50-50 साल तक संघ के स्वयंसेवक रहे, वे रातों-रात कैसे बदल गए ? अटलजी तो अटलजी, आडवाणीजी को क्या हो गया ? वे जिन्ना के प्रशंसक कैसे बन गए ?
भाजपा के नेता इन प्रश्नों पर मौन दिखाई देते हैं लेकिन ऐसा नहीं है| वे बोलते हैं लेकिन दबी जुबान से ! कुछ जुबान भी नहीं खोलते| अंदर ही अंदर घुटते हैं| वे पूछते हैं कि बताइए, हम राजनीतिक दल हैं या भजन-मंडली ? क्या जिदंगी भर हम दरियां बिछाते रहें और झांझ कूटते रहें ? यदि हमें सत्ता में नहीं बैठना है तो हम राजनीतिक पार्टी ही क्यों हैं ? हम सांस्कृतिक संगठन ही क्यों न बने रहें ? हम चुनाव क्यों लड़ें ? सरकार क्यों बनाएं ? धारा 370, समान सिविल कोड और राम मंदिर हम नहीं छोड़ते तो सरकार कैसे बनाते ? राम मंदिर छोड़ने का दुख है लेकिन उसे छोड़े बिना सत्ता के मंदिर में कैसे बैठते ? 22 राजनीतिक दलों का गठबंधन कैसे खड़ा करते ? अगर हम हिंदुत्व पर डटे रहते तो संसद में साधारण बहुमत बनाना भी असंभव होता| हिंदुत्व के नाम पर यदि सत्ताप्रेमी पार्टिया भी साथ नहीं आती हैं तो क्या सामान्य जनता आ जाती ? क्या केवल 20 प्रतिशत वोट और 200 सांसदों से कोई सरकार बन सकती है ? क्या आप किसी ऐसे क्षण की कल्पना कर सकते हैं, जब भाजपा को 40-45 प्रतिशत वोट और 300 सीटें मिल सकें ? यह तो शायद तभी हो सकता है कि जबकि भारत के सिर पर दूसरे विभाजन की तलवार लटकने लगे या देश में हजार गोधरा एक साथ हो जाएं ? सत्ता में आने के लिए क्या हमें इतनी बुरी बात कभी सोचनी भी चाहिए ? तो क्या करें ? सबसे पहले यह तय करें कि हमें सत्ता में आना है या नहीं ? यदि आना है तो सत्ता के तर्कों को समझें|
यह मामला सिर्फ अटलजी और आडवाणीजी का ही नहीं है| सबका है| नेहरू का और जिन्ना का भी| हिंदू-मुस्लिम एकता के अलमबरदार नेहरू को द्विराष्ट्रवाद के आगे घुटने टेकने पड़े और मुस्लिम सांप्रदायिकता के सिरमौर जिन्ना को पाकिस्तान बनने के बाद शीर्षासन करना पड़ा| सत्ता में आने और उसमें बने रहने के लिए क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़ते ? ज़रा कांग्रेस का इतिहास देखें| 1885 से अब तक उसने इतने पल्टे खाए हैं कि वह किसी बहरूपिए से कम नहीं रह गई है| पहले अंग्रेज का समर्थन, फिर आंशिक और बाद में पूर्ण आज़ादी की मांग, पहले गांधीवाद, फिर नेहरू का समाजवाद और फिर राजीव और नरसिंहराव का उदारवाद और अब वंशवाद ! यदि कांग्रेस में इतना लचीलापन नहीं होता तो वह कब की ही इतिहास के खंडहरों में समा जाती| उसकी एक ही विचारधारा है - सत्ता-प्राप्ति ! सत्ता से अगर कुछ सेवा हो जाए तो बहुत अच्छा| वरना सत्ता से पत्ता और पत्ता से सत्ता का अनंत खेल तो चलता ही रहता है| यही खेल बि्रटेन, अमेरिका या योरोपीय देशों में चलता है| वहां पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों एक ही रथ के दो पहिए होते हैं, पति-पत्नी की तरह ! कभी इसकी टोपी उसके सिर और कभी उसकी टोपी इसके सिर ! विचारधारा कहीं भी आड़े नहीं आती| विचारधारावाला कौनसा दल अब दुनिया में बचा है ? मुसोलिनी, हिटलर, स्तालिन, माओ की पार्टियॉं कहॉं हैं ?
भाजपा के नेता इस तथ्य को खूब समझते हैं लेकिन सिर्फ उनके बदलने से क्या होगा ? उनकी बात जब तक संघ के गले नहीं उतरेगी, वे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते ? ऐसा नहीं है कि संघ जड़ है| जिन्ना के बावजूद आखिर आडवाणी की पुन: प्रतिष्ठा कैसे हुई ? जसवंत के जिन्ना पर संघ क्यों नहीं बोला ? उसने भाजपा से अधिक परिपक्वता का परिचय दिया| संघ और भाजपा का संबंध नाभि-नाल संबंध है| संघ के बिना भाजपा शून्य है लेकिन अगर वह पुरानी लीक पर ही चलती रही तो वह अंततोगत्वा क्या स्वयं शून्य नहीं बन जाएगी याने संघ और भाजपा को एक साथ बैठकर चिंतन करना होगा| हिंदुत्व की पुनर्परिभाषा और नवीनीकरण समय की मांग है| क्या हिंदुत्व वही है, जो मुस्लिम लीग के जवाब में पैदा हुआ था ? 1906 के पहले तो किसी ने 'हिंदुत्व' शब्द भी नहीं सुना था| क्या राजा राममोहन राय, महर्षि दयानंद, विवेकानंद और अरबिन्दो का 'हिंदुत्व' और सावरकर का हिंदुत्व एक-जैसा है ? क्या हिंदुत्व की शुरूआत मुगल-काल से ही होती है, क्या गज़नी और गोरी के बाद ही होती है? क्या हिंदू-मुसलमान के मुद्रदे ही हिंदुत्व के मुद्रदे हैं ? क्या इस्लाम के पहले हिंदुत्व नहीं था ? क्या मुस्लिम-विद्वेष ही हिंदुत्व का एकमात्र् आधार है ? यदि भारत और पाकिस्तान एक रहते तो क्या वह अखंड भारत हो जाता ? क्या कभी हमने उस हिंदू भारत के बारे में भी सोचा है, जो तिब्बत (त्र्िविष्टुप) से मालदीव और अराकान (बर्मा) से खुरासान (ईरान) तक फैला हुआ था| हम इस आर्यावर्त्त में एकता, शांति और समृद्घि चाहते हैं या नहीं ? यदि चाहते हैं तो क्या हम अपनी घड़ी की सुई को 1947 पर ही अटकाए रखेंगे ? क्या हिंदुत्व का मतलब केवल धारा-370, समान सिविल कोड और राम मंदिर ही है ? क्या हमारे पास कोई ऐसी रामबाण औषधि नहीं है, जो हमारी राजनीति को हिंदू-मुसलमान और भारत-पाक के अजीर्ण से मुक्त करवा सके| क्या हिंदुत्व को हम किसी से नत्थी किए बिना नहीं समझ सकते ? क्या हिंदुत्व भारतीयता का पर्याय नहीं हो सकता, जिसमें सारे मज़हब, सारे दक्षिण एशियाई देश और उनके सारे लोग बिना किसी भेद-भाव के शामिल हो सकें ? मैं हिदुत्व को सिकोड़ने नहीं, फैलाने की बात कर रहा हूं| यदि हिंदुत्व अपने इतिहास और भूगोल में जरा फैल जाए तो भाजपा को वास्तविक और उत्तम राजनीतिक दल बनने में जबर्दस्त सफलता मिल सकती है| यह नया हिंदुत्व यथास्थितिवादी और सिर्फ पीछेदेखू नहीं होगा| यह परंपरा और परिवर्तन का सुंदर समन्वय होगा| यह कोरे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात नहीं करेगा| यह आर्थिक और सामाजिक राष्ट्रवाद का भी पुरोधा होगा| उसमें अपने 'समग्र राष्ट्रवाद' से भी आगे देखने की क्षमता होगी| वह भारत की सनातन विश्व-चेतना का प्रामाणिक प्रतिनिधि होगा|
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Dr.vaidik@gmail.com
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bahut hi vicharne yogya hai is par vichar kar ke bhajpa ya koi bhi party bharat ko mahaan bana skti hai
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