Saturday, July 17, 2010

भारत धारण करे, सिंह-मुद्रा !

राष्ट्रीय सहारा

29 सितंबर 2009

भारत धारण करे, सिंह-मुद्रा !

 - डॉ. वेदप्रताप वैदिक

                ऐसा कहा जा रहा है कि सुरक्षा-परिषद् के ताजातरीन प्रस्ताव का भारत-अमेरिकी परमाणु सौदे पर कोई असर नहीं पड़ेगा| प्रधानमंत्री को अमेरिकी नेताओं ने आश्वस्त कर दिया है और वे गद्रगद् हैं| लेकिन इसमें गद्रगद् होने की बात क्या है ? भारत को गद्रगद् तो तब होना चाहिए, जब सुरक्षा परिषद् उसे वह मान्यता दे, जो उसने अन्य पांच परमाणु शस्त्र्-संपन्न राष्ट्रों को दे रखी है| यदि भारत को अमेरिका, रूस, चीन, बि्रटेन और फ्रांस की तरह बाक़ायदा छठा परमाणु राष्ट्र मान लिया जाए तो वाकई कोई बात है| वरना सुरक्षा परिषद का 1887 प्रस्ताव भारत जैसे देशों के लिए बहुत अन्यायकारी और खतरनाक सिद्घ हो सकता है| 

                इस प्रस्ताव के मुख्य रूप से दो लक्ष्य हैं| पहला, विश्व में परमाणु-शस्त्रें को नियंत्रित करना और दूसरा, परमाणु अप्रसार संधि को सभी राष्ट्रों पर लागू करना| यह दूसरा लक्ष्य कम से कम चार राष्ट्रों को अपने शिकंजे में ले सकता है| ये चार राष्ट्र हैं, भारत, पाकिस्तान, उ. कोरिया और इस्राइल| भारत, पाकिस्तान और इस्राइल ने अभी तक इस संधि पर दस्तखत नहीं किए हैं जबकि दुनिया के लगभग सभी राष्ट्रों ने कर दिए हैं| उ. कोरिया ने भी कर दिए थे लेकिन उसने यह संधि रद्द कर दी और परमाणु हथियार बना लिए| ईरान भी संधि का सदस्य है लेकिन वह भी परमाणु शक्ति बनने की फि़राक में है| जिन पांच महाशक्तियों ने पहले से परमाणु शस्त्रस्त्र् बना रखे हैं, वे अपने एकाधिकार को अक्षुण्ण बनाए रखना चाहती हैं| इसलिए उन्होंने परमाणु-अप्रसार संधि का कवच खड़ा किया है ताकि जिन राष्ट्रों के पास परमाणु हथियार नहीं हैं, वे कभी भी उन्हें बना न सकें| यह संधि अ-परमाणु राष्ट्रों के स्थाई खस्सीकरण का दस्तावेज़ है| जो इस पर दस्तखत करते हैं, उनकी संपूर्ण परमाणु गतिविधियों पर वियना की परमाणु एजेंसी नज़र रखती है| अगर वे बम बनाने की कोशिश करेंगे तो उन्हें दुनिया का कोई भी राष्ट्र परमाणु तकनीक, ईंधन, कल-पुर्जे, भटि्ठयां आदि कतई नहीं देगा| उनका शांतिपूर्ण परमाणु-कार्यक्रम भी ठप्प कर दिया जाएगा| भारत ने इस परमाणु सामंतवाद का सदा विरोध किया है| अब सुरक्षा परिषद ने जो प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया है, उसमें ईरान और उ. कोरिया का तो नाम भी लिया गया है लेकिन भारत, पाकिस्तान और इस्राइल को भी नाम लिए बिना कहा है कि वे भी परमाणु-अप्रसार संधि पर दस्तखत करें| यह संधि सब पर लागू हो| इसका कोई अपवाद न हो| इस संधि का जो भी उल्लघंन करे, उसके विरूद्घ कार्रवाई हो| यह प्रस्ताव असाधारण है| अमेरिका पहली बार सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष बना है| सुरक्षा परिषद के पांचों स्थायी और शेष सभी अस्थायी सदस्यों ने एकमत से इस प्रस्ताव का समर्थन किया है| सभी 15 सदस्य राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्ष बैठक में उपस्थित थे| ऐसा संयुक्तराष्ट्र के इतिहास में सिर्फ पांच बार हुआ है| अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने यह प्रस्ताव रखा और सुरक्षा परिषद ने इस पर मुहर लगा दी|            

                        भारत के संयुक्तराष्ट्र प्रतिनिधि ने तत्काल इस प्रस्ताव का विरोध किया है| उसका तर्क सबल है कि भारत ने इस संधि पर दस्तखत ही नहीं किए हैं| इसलिए उस पर यह लागू ही नहीं होती| किसी संधि पर कोई संप्रभु राष्ट्र दस्तखत करे या न करे, इसकी पूर्ण स्वतंत्र्ता उसे है| यदि नहीं है तो फिर वह संप्रभु कैसे हुआ ? भारत ने इस भेदभावपूर्ण संधि को न पहले स्वीकार किया था और न ही वह इसे भविष्य में स्वीकार करेगा| यह बात अपने आप में ठीक है लेकिन काफी नरम है| यह बचाव की मुद्रा है| एक तरह का दब्बूपन है| समझ में नहीं आता कि हमें पांच परमाणु दादाओं से दबने की जरूरत क्या है ? वे क्या कर लेंगे ? जब हमने 1974 और 1998 में परमाणु-परीक्षण किए तो क्या हम उनसे दबे ? उन्होंने खिसियाकर भारत पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा दिए और अब खुद ही मजबूर होकर भारत के साथ परमाणु-सौदा कर लिया| क्यों किया ? यदि भारत ने संधि को चुनौती दी है और वह उद्रंदड राष्ट्र (रोग स्टेट) है तो आपने उसके साथ सौदा ही क्यों किया ? 45 सदस्यीय 'परमाणु सप्लायर्स ग्रुप' उसे परमाणु तकनीक, ईंधन, कल-पुर्जे आदि देने को बेताब क्यों है ? उन्हें पता है कि भारत का रास्ता खोलकर वे करोड़ों-अरबों डॉलर कमाएंगे| वे यह भी जानते हैं कि भारत पाकिस्तान की तरह गैर-जिम्मेदार राष्ट्र नहीं है| उसके परमाणु शस्त्रस्त्र् आतंकवादियों के हाथ नहीं लग सकते| उसने अपने परमाणु हथियार पाकिस्तान की तरह चोरी-छिपे नहीं बनाए हैं| वह पैसे के लालच या मज़हब के नशे में आकर परमाणु-प्रसार का कुत्सित कर्म कभी नहीं करेगा| यदि ऐसा है तो वे भारत को नया और छठा परमाणु-राष्ट्र क्यों नही मानते ? यदि मान लें तो भारत तत्काल परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत कर देगा| अन्य पांच परमाणु राष्ट्रों की तरह वह भी सामंती जकड़ से मुक्त हो जाएगा| भारत का परमाणु-आचरण अमेरिका और चीन से कहीं बेहतर रहा है| इन दोनों राष्ट्रों की कृपा के बिना क्या पाकिस्तान और उ. कोरिया परमाणु हथियार बना सकते थे ? अमेरिका और चीन अपने संकीर्ण स्वार्थों के वशीभूत हो गए| उन्होंने परमाणु अप्रसार संधि की पीठ में छुरा भोंक दिया| भारत ने न कभी वैसा किया और न कभी वह वैसा करेगा| 

                भारत अपने आप में एक परमाणु सच्चाई है| उसे नकारनेवाला कोई भी प्रस्ताव न तो कानूनी है न यथार्थवादी ! भारत को चाहिए कि वह इस प्रस्ताव को खुली चुनौती दे और ऐसी संधि की मांग करे, जो सभी राष्ट्रों के लिए समान हो| भारत की मुद्रा बचाव की नहीं, आक्रमण की हो| यदि भारत ऐसी आक्रामक मुद्रा धारण नहीं करेगा तो इस बात की पूरी संभावना है कि उसे परमाणु-पंगु बना दिया जाएगा| उसे न तो नए परीक्षण करने दिए जाएंगे और न ही नए हथियार बनाने दिए जाएंगे| भारत-अमेरिकी परमाणु-सौदा उसके गले का पत्थर बन जाएगा| भारत परमाणु-बौना बनकर रह जाएगा| सौदे की आड़ में उस पर तरह-तरह के दबाव डाले जाएंगे| यह धेनु-मुद्रा नहीं, सिंह -मुद्रा धारण करने का समय है| यह मौका है, जब भारत तीसरी दुनिया का प्रामणिक प्रतिनिधि और प्रबल प्रवक्ता बन सकता है| भारत चाहे तो इस परमाणु-प्रसंग का इस्तेमाल करके संयुक्तराष्ट्र संघ का ढांचा ही बदल सकता है| पंच दादाओं की दुकान के बदले संयुक्तराष्ट्र को वह वास्तविक विश्व-संस्था बना सकता है| वह 21वीं सदी की अन्तरराष्ट्रीय राजनीति को नए सांचे में ढाल सकता है| क्या हमारे राजनीतिक प्रतिष्ठान में इतना माद्दा है ?

                


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