Saturday, July 17, 2010

करजई बने सबकी मजबूरी


दैनिक भास्कर

17 सितंबर 2009 

करजई बने सबकी मजबूरी

                 अफगानिस्तान में राष्ट्रपति का चुनाव किसने जीता है, इसकी अधिकारिक घोषणा अभी तक नहीं हुई है लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है ? यह निश्चित है कि डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला के वोट 28 प्रतिशत से कूदकर 54 प्रतिशत के आंकड़े को नहीं छू सकते| वे 50 प्रतिशत तक भी नहीं पहुंच सकते| यदि पहुंच जाते तो यह चुनाव दुबारा होता| हामिद करज़ई और अब्दुल्ला के बीच एक टक्कर और होती और जिसे भी 50 प्रतिशत से अधिक वोट मिलते, वह राष्ट्रपति चुना जाता| अफगानिस्तान के स्वतंत्र् चुनाव आयोग ने सैकड़ों शिकायतों को दर्ज किया है| वह उनकी जांच करेगा और लगभग 80 मतदान-केंद्रों के मतदान को ही उसने रद्द कर दिया है| दुबारा मतदान और दुबारा मत-गणना में कुछ समय लगेगा| तब तक चुनाव-परिणाम की घोषणा रूकी रहेगी लेकिन अगर यह मान लें कि सारे विवादास्पद वोटों का एक बड़ा हिस्सा अब्दुल्ला को  मिल जाएगा तो भी हामिद करज़ई के वोट 50 प्रतिशत से ज्यादा ही रहेंगे| यदि करज़ई और अब्दुल्ला में दुबारा मुकाबला हुआ तो भी जीत तो करज़ई की ही होगी| याने 41 उम्मीदवारों के इस चुनाव में करज़ई का दुबारा राष्ट्रपति चुना जाना लगभग तय ही है|

                      करज़ई को दुबारा यह सफलता कैसे मिल रही है ? इसका रहस्य क्या है ? पिछले आठ साल के शासन में अफगानिस्तान की हालत में कोई खास सुधार नहीं हुआ है| लोगों की आर्थिक स्थिति बिगड़ी है, बेकारी-भुखमरी बढ़ी है| सुरक्षा का हाल यह है कि जो तालिबान आठ साल पहले काबुल से सिर पर पांव रखकर भाग खड़े हुए थे, आज वे लगभग 90 प्रतिशत अफगानिस्तान में दुबारा जम गए हैं| उन्होंने करज़ई के अनेक मंत्र्ियों, राज्यपालों और बड़े अफसरों की हत्या कर दी है| उन्होंने भारतीय और केनेडियन दूतावासों पर हमला बोला है और सबसे अधिक सुरक्षित काबुल की सीरिना होटल और मंत्रलयों में घुसकर लोगों को मार दिया है| उनके डर के मारे काबुल शहर एक विशाल किला बन गया है| स्वयं राष्ट्रपति करज़ई राजमहल में ही घिरे रहते हैं| साधारण अफगान लोग करज़ई को अमेरिका की कठपुतली बोलते हैं और उन्हें बहुत ही कमज़ोर शासक मानते हैं| उनके सगे-संबंधियों के भ्रष्टाचार के किस्से घर-घर में सुने जा सकते हैं| करज़ई न तो कोई दक्ष फौज खड़ी कर सके और न ही नौकरशाही ! अमेरिकी भी उनसे नाराज़ हो चले थे| बराक ओबामा ने राष्ट्रपति बनने के पहले जो संकेत दिए थे, उनसे लगता था कि वे करज़ई को चलता कर देंगे| अमेरिकी सरकार और करज़ई के बीच खुले में कहा-सुनी भी शुरू हो गई थी| तो फिर ऐसा क्या हुआ कि करज़ई टिक गए और टिके ही नहीं, चुनाव भी जीत गए ?

                       सबसे पहली बात तो यह है कि करज़ई जात के पश्तून हैं| अफगानिस्तान में पश्तूनों की संख्या 40 से 50 प्रतिशत के बीच मानी जाती है| जन-गणना के ठोस आंकड़े नहीं होने के कारण कुछ लोग यह भी कहते हैं कि जिस देश में 60 प्रतिशत पश्तून या पठान रहते हों, वहां कोई ताजि़क या उज़बेक या हजारा 'साहिबे-मुल्क' कैसे बन सकता है ? यदि बन भी जाए तो उसकी गाड़ी पहले दिन ही ठप्प हो जाएगी, जैसे कि फारसीभाषी राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी की हो गई थी| पिछले आठ साल में अमेरिका किसी ऐसे पठान को नहीं ढूंढ पाया, जो करज़ई की जगह बिठाया जा सके| एक दो पठान उम्मीदवार काबिल जरूर हैं लेकिन उन्हें इतने कम वोट मिले हैं कि उनकी कहीं कोई गिनती ही नहीं है| डॉ. अब्दुल्ला के पिता पठान और मॉ ताजि़क हैं| वे छह साल तक करज़ई के विदेश मंत्र्ी भी रहे लेकिन वे उस 'उत्तरी-गठबंधन' के सूरमाँ रहे हैं, जो गैर-पश्तून माना जाता है| डॉ. अब्दुल्ला को गैर-पश्तूनों के वोट जमकर मिले हैं, क्योंकि उन्हें अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों-ताजि़कों, उज़बेकों, हजाराओं - आदि का प्रतिनिधि माना जाता है| यदि उन्हें सचमुच सभी अल्पसंख्यकों के वोट मिल जाते तो उनके वोट करज़ई के वोटों से ज्यादा होते लेकिन करज़ई की जीत का दूसरा कारण यह है कि उन्होंने अब्दुल्ला के वोट-बैंक में जबर्दस्त सेंध लगा दी है| उन्होंने सभी अल्पसंख्यकों के अनेक बड़े नेताओं से जबर्दस्त सांठ-गांठ कर ली ! ताजि़कों के प्रसिद्घ नेता फील्ड मार्शल कासिम फहीम को उन्होंने अपना भावी उपराष्ट्रपति घोषित कर दिया, उज़बेकों के निर्वासित नेता रशीद दोस्तम को तुर्की से वापस बुलवा लिया, हजाराओं के जाने-माने रहनुमा मुहम्मद मोहकिक को भी उन्होंने साथ ले लिया| इसके अलावा करज़ई के जीतने का तीसरा कारण यह है कि उन्होंने पठानो में भी अनेक गिलजई मुखियाओं को पटा लिया| तालिबान को भी वार्ता और समझौते की पुडि़या दे दी| उन्होंने  बादशाह ज़ाहिरशाह के परिवार को भी अपने पक्ष में बनाए रखा| ज़ाहिरशाह के बेटे मीर वाइज़ अब भी महल में ही रहते हैं और पोते मुस्तफा जाहिर को उन्होंने बड़ा सरकारी पद दे रखा है| दूसरे शब्दों में उन्होंने अफगानों के हर तबके को अपने पक्ष में करने की कोशिश की है |

                            करज़ई की जीत का चौथा कारण यह है कि पिछले साल भर में उन्होंने कई बार अमेरिका और उसकी फौजी कार्रवाइयों की खुले-आम आलोचना की है| जब-जब नाटो फौजों ने बेकसूर नागरिकों पर जान-बूझकर या अनजाने ही हमला बोला, करज़ई ने आम लोगों की आवाज़ में आवाज़ मिलाई| जो बातें बबरक कारमल और नजीबुल्लाह सोवियत फौजों के बारे में दबी जुबान से करते थे, वही करज़ई ने खुले-आम की| इससे उन्हें जनता की सहानुभूति भी मिली और यह छवि भी बनी कि वे अमेरिका की कठपुतली नहीं हैं| करज़ई के जमे रहने और जीतने का पांचवा कारण यह है कि वे स्वभावत: लोकतान्त्रिक हैं, विनम्र हैं, नरमदिल हैं| पिछले ढाई सौ साल के इतिहास में करज़ई ऐसे पहले अफगान शासक हैं, जिन्होंने अपने विरोधियों की हत्या नहीं की या उन्हें पुले-चर्खी जेल की हवा नहीं खिलाई| उनकी यह कमजोरी ही उनकी ताकत बन गई है| उनके मंत्र्ि-मंडल में कई सदस्य ऐसे हैं, जो उनके विरोधी 'जब्हे-मिल्ली' (राष्ट्रीय मोर्चे) के नेता हैं| कई ऐसे राज्यपाल हैं, जो अब्दुल्ला के जाने-माने समर्थक हैं| करज़ई के सेनापति जनरल बिस्मिल्लाह, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अमरूल्लाह सालेह, गुप्तचर विभाग तथा अन्य कई महत्वपूर्ण विभागों के पदाधिकारी गैर-पठान हैं| करज़ई सभी जातियों को साथ लेकर चलने की नीति चला रहे हैं| करज़ई के जीतने का छठा कारण यह भी है कि उन्होंने किसी भी महाशक्ति या पड़ौसी देश के साथ अपने संबंध खराब नहीं होने दिए| यह ठीक है कि आज का अफगानिस्तान पूरी तरह से अमेरिका और उसके साथियों पर निर्भर है लेकिन अमेरिका  के धुर-विरोधी ईरान के साथ भी अफगानिस्तान के संबंध सहज हैं| काबुल के शासक प्राय: पाकिस्तान के साथ या तो जरूरत से ज्यादा घनिष्टता रखते हैं या उससे घृणा करते हैं| करज़ई ने यहां भी मध्यम मार्ग अपनाया है| यही रवैया चीन और रूस के प्रति है| भारत के साथ करज़ई ने विशेष संंबंध बनाए हैं| इसी का परिणाम है कि भारत ने अपने परंपरागत मित्र् 'उत्तरी गठबंधन' का साथ न देकर चुनाव में तटस्थता बनाए रखी| यही वह तत्व है, जिसने अमेरिका को मजबूर किया कि वह करज़ई का विरोध न करे| करज़ई के जीतने का सांतवा कारण है, उनकी अपनी स्वच्छ छवि ! न तो अफगान जनता और न ही अमेरिका ने कभी यह आरोप लगाया कि स्वयं करज़ई भ्रष्ट हैं| ऐसी स्थिति में करज़ई सबकी मज़बूरी बन गए हैं| अब देखना यही है कि करज़ई की जीत की घोषणा को उनके विरोध पचा पाते हैं या नहीं ? 
( लेखक जाने-माने अफगान-विशेषज्ञ हैं )


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