Saturday, July 17, 2010

नेपाल से खरी-खरी

दैनिक भास्कर

9 सितंबर 2009

नेपाल से खरी-खरी

नेपाल का हाल भी अजीब है| जरा दो मामलों पर गौर कीजिए-एक उपराष्ट्रपति की हिंदी शपथ का और दूसरा पशुपतिनाथ मंदिर के पुजारियों का ! यूं तो ये नेपाल के आंतरिक मामले मालूम पड़ते हैं और कहा जा रहा है कि इनका भारत से क्या लेना-देना ? लेकिन सच्चाई यह है कि ये दोनों मामले जुड़े हुए हैं और ये भारत पर नेपाल के भारत-विरोधी तत्वों का सीधा प्रहार हैं| यदि ये मामले भारत से जुड़े हुए नहीं भी होते| इनका चर्चा तक नहीं होता|

                   उप-राष्ट्रपति परमानंद झा ने अगर हिंदी में शपथ ले ली तो कौनसा देश-द्रोह कर दिया ? अगर वे अंग्रेजी में शपथ लेते तो क्या उसे भी देश-द्रोह कहा जाता ? नहीं कहा जाता, क्योंकि अंग्रेजी बि्रटेन की भाषा है, भारत की नहीं| हिंदी में शपथ लेना पाप है, क्योंकि वह भारत की भाषा है| नेपाल के पहाड़ी नागरिकों का यह विरोध हिंदी-विरोध नहीं है, यह भारत-विरोध है| यदि यह उनका हिंदी-विरोध होता तो वे हिंदी लिखते-बोलते-पढ़ते क्यों ? हिंदी सिनेमा और सीरियलों के पीछे वे पागल क्यों हुए रहते हैं ? लाखों की संख्या में वे हिंदी क्यों सीखते और भारत आकर नौकरियां क्यों करते ? झा की हिंदी-शपथ को विरोध करनेवाले नेपाली हिंदी को भारत के वर्चस्व का प्रतीक मानते हैं| वे मानते हैं कि नेपाल के मधेसी हिंदी के बहाने भारत को हमारे सिर पर थोप रहे हैं| यह ठीक है कि नेपाल के मधेसी लोग घर में भोजपुरी, मैथिली, अवधी आदि बोलते हैं लेकिन उनकी संपर्क और सामूहिक पहचान की भाषा हिंदी है| उनकी जनसंख्या नेपाल की आधी के बराबर है| इस बार संसद में भी उनका प्रतिनिधित्व जोरदार है| राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति भी मधेसी ही बने हैं| यदि वे संसद में हिंदी बोलें तो इसमें गलत क्या है? सदभावना पार्टी के संस्थापक स्व. गजेन्द्र नारायण सिंह जब नेपाली संसद में धोती-कुर्ता पहनकर जाते और हिंदी बोलते तो उन्हें निकाल बाहर किया जाता था| अब से लगभग 20 साल पहले स्पीकर दमनप्रसाद धुंगाना ने मेरे आग्रह पर गजेंद्र बाबू को स्ववेश पहनने और स्वभाषा बोलने की अनुमति दी थी लेकिन 20 वर्षों में नेपाल के उग्र राष्ट्रवादी तत्व इस लोकतांत्रिक प्रगति को पचा नहीं पाए और उन्होंने उप-राष्ट्रपति परमानंद झा के विरूद्घ कृत्सित अभियान छेड़ दिया है| उन्होंने झा के विरूद्घ उच्चतम न्यायालय में मुकदमे दायर किए है और उनके विरूद्घ काठमांडो में उत्तेजक प्रदर्शन किए है| उन्हें जान से मारने की धमकी भी दी है लेकिन झा है कि डटे हुए है| उन्होंने उच्चतम न्यायालय के फैसले को मानने से मना कर दिया है| उन्होंने न तो दुबारा नेपाली में शपथ ली है और न ही उप-राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दिया है| वे छुट्रटी पर चले गए हैं| परमानंद झा नेपाल के लाखों मधेसियों के महानायक बन गए हैं| यों तो नेपाल के उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर रह चकु हैं लेकिन उनके इस संघर्ष ने उन्हें नेपाल के इतिहास पुरूषों की श्रेणी में बिठा दिया है| वे चाहते तो उच्चतम न्यायालय के आदेश को मान लेते और दुबारा नेपाली में शपथ ले लेते लेकिन उन्होंने कुर्सी के मुकाबले अपनी सामूहिक अस्मिता को अधिक महत्व दिया| उन्होंने कहा कि उन्होंने हिंदी में हू-बहू वही शपथ ली है, जो मूल नेपाली में है| वे शपथ का अनुवाद करते गए और बोलते गए| अंतरिम संविधान में कहीं नहीं लिखा है कि शपथ केवल नेपाली भाषा में ही लेनी चाहिए| यदि संविधान भाषा, जात और मजहब के आधार पर भेदभाव के विरूद्घ है तो वह हिंदी में शपथ लेने के विरूद्घ कैसे हो सकता है ? परमानंद झा की देखादेखी माधव नेपाल मंत्रिमंडल के दो अन्य सदस्यों - लक्ष्मणलाल कर्ण और सरोजकुमार यादव ने भी हिंदी में शपथ ली है| कलावती दुसाध ने भोजपुरी में शपथ ली है| नेपाल का न्यायालय कहां-कहां हथेली अड़ाएगा ? संपूर्ण मधेस की जनता आज परमानंद झा के साथ है| क्या नेपाल के उग्र राष्ट्रवादी लोग नेपाल को दो हिस्सों में बांटना चाहते हैं ? क्या वे वहां श्रीलंका-जैसी स्थिति पैदा करना चाहते हैं ? नेपाल के उग्र राष्ट्रवादियों का यह तर्क बिल्कुल बोदा है कि हिंदी भारत की भाषा है, इसीलिए वे इसे स्वीकार नहीं करेंगे| क्या उन्हें पता नहीं कि भारत के संविधान में नेपाली भाषा को भी अन्य भारतीय भाषाओं के बराबर ही मान्यता प्राप्त है ? क्या वे 'भारतीय' होने के कारण नेपाली भाषा को भी रद्रद कर देंगे ? यदि इस तर्क को आगे बढ़ाएंगे तो पाकिस्तान में उर्दू, बांग्लादेश में बांग्ला और श्रीलंका में तमिल का भी कोई संवैधानिक स्थान नहीं हो सकता, क्योंकि ये सब भाषाएं भी भारत की संवैधानिक भाषाए हैं| दक्षिण एशिया की संरचना ही ऐसी है कि एक-दूसरे की भाषाओं, मजहबों, जातियों आदि का विस्तार एक-दूसरे की सीमाओं के भीतर तक है| इसी यथार्थ की स्वीकृति नेपाल के भावी संविधान में होनी है| नेपाली और हिंदी, दोनों राजभाषाएं बनकर रहेंगी| ऐसी स्थिति मे नेपाली न्यायालय और नेपाल राष्ट्रवादियों को यह नया सिरदर्द खड़ा करने की जरूरत क्या है ?

                 माओवादियों की स्थिति भी विचित्र् है| उन्होंने न्यायालय के निर्णय की आलोचना की है लेकिन उन्होंने उप-राष्ट्रपति को भी गलत कहा है| उनका कहना है कि उप-राष्ट्रपति भोजपुरी या मैथिली में शपथ लेते तो ठीक रहता याने उन्होंने हिंदी में शपथ क्यों ली ? न्यायालय की आलोचना उन्होंने इसीलिए की कि वे मधेसियों से बैर मोल नहीं लेना चाहते| वे जन-विरोधी दिखाई नहीं पड़ना चाहते| इसीलिए उन्होंने भोजपुरी-मैथिली का दाव भी मार दिया लेकिन उनका हिदी-विरोध, शुद्घ भारत-विरोध है| भारत विरोध का ही दूसरा पैंतरा है, पशुपतिनाथ मंदिर के पुजारियों का अपमान ! पुजारी हिंदू हैं, ब्राह्रमण हैं, शास्त्रनुयायी हैं, सुप्रशिक्षित हैं लेकिन उनका एकमात्र् दोष यही है कि वे भारतीय हैं| अगर वे भारत के नागरिक नहीं होते, इंडोनेशिया या पाकिस्तान या मोरिशस के होते तो माओवादियों को कोई आपत्ति नहीं होती| माओवादी सैकड़ों वर्षो से चली आ रही इस परंपरा को आखिर क्यों तोड़ना चाहते हैं ? वे मानते हैं कि जैसे हिंदी भारत के वर्चस्व का प्रतीक है वैसे ही भारतीय पुजारी भी भारतीय दादागिरी का प्रतीक हैं| भारत को चुनौती दिए बिना नेपाल का राष्ट्रवाद पंगु है ? नेपाल में राष्ट्रवाद और साम्यवाद का यह जहरीला घालमेल क्या किसी फाशीवाद से कम है ? माओवादी सरकार ने भारतीय पुजारियों को हटा दिया था| अब एमाले-सरकार का यह कर्तव्य है कि उसने कर्नाटक से जो पुजारी बुलवाए हैं, उनके सम्मान की रक्षा में वह कोई कसर न छोड़े| हिंदी का सवाल हो या भारतीय पुजारियों का सवाल, भारत सरकार को भी दो-टूक राय रखनी चाहिए| उसे नेपाल की सरकार और भारत-विरोधी ताकतों दोनों को बता देना चाहिए कि वे मर्यादा-भंग न करे, वरना उसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे| यह नहीं हो सकता कि नेपाल को भारत 2000 करोड़ की आर्थिक सहायता भी दे और वहां वह भारत-विरोधी अभियानों को भी बर्दाश्त करता रहे| चीन और पाकिस्तान, भारत की इस नरमी का काफी बेजा फायदा उठा रहे हैं| नेपाल अरबो-खरबों के नकली नोटों का अड्रडा बनता जा रहा है और चीनी सरकार नेपाली फौज में भी घुसपैठ के रास्ते तलाश रही है| पड़ौसी देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना उचित नहीं है लेकिन नेपाल में आजकल जो हो रहा है, वह भारत की सुरक्षा के लिए सीधा खतरा बन सकता है| इसके अलावा दक्षिण एशिया के सबसे बड़े राष्ट्र होने के नाते यह देखना भी उसका कर्त्तव्य है कि पड़ौसी देशों में कहीं गृह-युद्घ की खिचड़ी तो नहीं पक रही है| नेपाल की रक्षा और भारत की रक्षा अलग-अलग नही है| भारत पर प्रहार करके नेपाल स्वयं को सुरक्षित कैसे रख सकता है ? 

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भारत धारण करे, सिंह-मुद्रा !

राष्ट्रीय सहारा

29 सितंबर 2009

भारत धारण करे, सिंह-मुद्रा !

 - डॉ. वेदप्रताप वैदिक

                ऐसा कहा जा रहा है कि सुरक्षा-परिषद् के ताजातरीन प्रस्ताव का भारत-अमेरिकी परमाणु सौदे पर कोई असर नहीं पड़ेगा| प्रधानमंत्री को अमेरिकी नेताओं ने आश्वस्त कर दिया है और वे गद्रगद् हैं| लेकिन इसमें गद्रगद् होने की बात क्या है ? भारत को गद्रगद् तो तब होना चाहिए, जब सुरक्षा परिषद् उसे वह मान्यता दे, जो उसने अन्य पांच परमाणु शस्त्र्-संपन्न राष्ट्रों को दे रखी है| यदि भारत को अमेरिका, रूस, चीन, बि्रटेन और फ्रांस की तरह बाक़ायदा छठा परमाणु राष्ट्र मान लिया जाए तो वाकई कोई बात है| वरना सुरक्षा परिषद का 1887 प्रस्ताव भारत जैसे देशों के लिए बहुत अन्यायकारी और खतरनाक सिद्घ हो सकता है| 

                इस प्रस्ताव के मुख्य रूप से दो लक्ष्य हैं| पहला, विश्व में परमाणु-शस्त्रें को नियंत्रित करना और दूसरा, परमाणु अप्रसार संधि को सभी राष्ट्रों पर लागू करना| यह दूसरा लक्ष्य कम से कम चार राष्ट्रों को अपने शिकंजे में ले सकता है| ये चार राष्ट्र हैं, भारत, पाकिस्तान, उ. कोरिया और इस्राइल| भारत, पाकिस्तान और इस्राइल ने अभी तक इस संधि पर दस्तखत नहीं किए हैं जबकि दुनिया के लगभग सभी राष्ट्रों ने कर दिए हैं| उ. कोरिया ने भी कर दिए थे लेकिन उसने यह संधि रद्द कर दी और परमाणु हथियार बना लिए| ईरान भी संधि का सदस्य है लेकिन वह भी परमाणु शक्ति बनने की फि़राक में है| जिन पांच महाशक्तियों ने पहले से परमाणु शस्त्रस्त्र् बना रखे हैं, वे अपने एकाधिकार को अक्षुण्ण बनाए रखना चाहती हैं| इसलिए उन्होंने परमाणु-अप्रसार संधि का कवच खड़ा किया है ताकि जिन राष्ट्रों के पास परमाणु हथियार नहीं हैं, वे कभी भी उन्हें बना न सकें| यह संधि अ-परमाणु राष्ट्रों के स्थाई खस्सीकरण का दस्तावेज़ है| जो इस पर दस्तखत करते हैं, उनकी संपूर्ण परमाणु गतिविधियों पर वियना की परमाणु एजेंसी नज़र रखती है| अगर वे बम बनाने की कोशिश करेंगे तो उन्हें दुनिया का कोई भी राष्ट्र परमाणु तकनीक, ईंधन, कल-पुर्जे, भटि्ठयां आदि कतई नहीं देगा| उनका शांतिपूर्ण परमाणु-कार्यक्रम भी ठप्प कर दिया जाएगा| भारत ने इस परमाणु सामंतवाद का सदा विरोध किया है| अब सुरक्षा परिषद ने जो प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया है, उसमें ईरान और उ. कोरिया का तो नाम भी लिया गया है लेकिन भारत, पाकिस्तान और इस्राइल को भी नाम लिए बिना कहा है कि वे भी परमाणु-अप्रसार संधि पर दस्तखत करें| यह संधि सब पर लागू हो| इसका कोई अपवाद न हो| इस संधि का जो भी उल्लघंन करे, उसके विरूद्घ कार्रवाई हो| यह प्रस्ताव असाधारण है| अमेरिका पहली बार सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष बना है| सुरक्षा परिषद के पांचों स्थायी और शेष सभी अस्थायी सदस्यों ने एकमत से इस प्रस्ताव का समर्थन किया है| सभी 15 सदस्य राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्ष बैठक में उपस्थित थे| ऐसा संयुक्तराष्ट्र के इतिहास में सिर्फ पांच बार हुआ है| अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने यह प्रस्ताव रखा और सुरक्षा परिषद ने इस पर मुहर लगा दी|            

                        भारत के संयुक्तराष्ट्र प्रतिनिधि ने तत्काल इस प्रस्ताव का विरोध किया है| उसका तर्क सबल है कि भारत ने इस संधि पर दस्तखत ही नहीं किए हैं| इसलिए उस पर यह लागू ही नहीं होती| किसी संधि पर कोई संप्रभु राष्ट्र दस्तखत करे या न करे, इसकी पूर्ण स्वतंत्र्ता उसे है| यदि नहीं है तो फिर वह संप्रभु कैसे हुआ ? भारत ने इस भेदभावपूर्ण संधि को न पहले स्वीकार किया था और न ही वह इसे भविष्य में स्वीकार करेगा| यह बात अपने आप में ठीक है लेकिन काफी नरम है| यह बचाव की मुद्रा है| एक तरह का दब्बूपन है| समझ में नहीं आता कि हमें पांच परमाणु दादाओं से दबने की जरूरत क्या है ? वे क्या कर लेंगे ? जब हमने 1974 और 1998 में परमाणु-परीक्षण किए तो क्या हम उनसे दबे ? उन्होंने खिसियाकर भारत पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा दिए और अब खुद ही मजबूर होकर भारत के साथ परमाणु-सौदा कर लिया| क्यों किया ? यदि भारत ने संधि को चुनौती दी है और वह उद्रंदड राष्ट्र (रोग स्टेट) है तो आपने उसके साथ सौदा ही क्यों किया ? 45 सदस्यीय 'परमाणु सप्लायर्स ग्रुप' उसे परमाणु तकनीक, ईंधन, कल-पुर्जे आदि देने को बेताब क्यों है ? उन्हें पता है कि भारत का रास्ता खोलकर वे करोड़ों-अरबों डॉलर कमाएंगे| वे यह भी जानते हैं कि भारत पाकिस्तान की तरह गैर-जिम्मेदार राष्ट्र नहीं है| उसके परमाणु शस्त्रस्त्र् आतंकवादियों के हाथ नहीं लग सकते| उसने अपने परमाणु हथियार पाकिस्तान की तरह चोरी-छिपे नहीं बनाए हैं| वह पैसे के लालच या मज़हब के नशे में आकर परमाणु-प्रसार का कुत्सित कर्म कभी नहीं करेगा| यदि ऐसा है तो वे भारत को नया और छठा परमाणु-राष्ट्र क्यों नही मानते ? यदि मान लें तो भारत तत्काल परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत कर देगा| अन्य पांच परमाणु राष्ट्रों की तरह वह भी सामंती जकड़ से मुक्त हो जाएगा| भारत का परमाणु-आचरण अमेरिका और चीन से कहीं बेहतर रहा है| इन दोनों राष्ट्रों की कृपा के बिना क्या पाकिस्तान और उ. कोरिया परमाणु हथियार बना सकते थे ? अमेरिका और चीन अपने संकीर्ण स्वार्थों के वशीभूत हो गए| उन्होंने परमाणु अप्रसार संधि की पीठ में छुरा भोंक दिया| भारत ने न कभी वैसा किया और न कभी वह वैसा करेगा| 

                भारत अपने आप में एक परमाणु सच्चाई है| उसे नकारनेवाला कोई भी प्रस्ताव न तो कानूनी है न यथार्थवादी ! भारत को चाहिए कि वह इस प्रस्ताव को खुली चुनौती दे और ऐसी संधि की मांग करे, जो सभी राष्ट्रों के लिए समान हो| भारत की मुद्रा बचाव की नहीं, आक्रमण की हो| यदि भारत ऐसी आक्रामक मुद्रा धारण नहीं करेगा तो इस बात की पूरी संभावना है कि उसे परमाणु-पंगु बना दिया जाएगा| उसे न तो नए परीक्षण करने दिए जाएंगे और न ही नए हथियार बनाने दिए जाएंगे| भारत-अमेरिकी परमाणु-सौदा उसके गले का पत्थर बन जाएगा| भारत परमाणु-बौना बनकर रह जाएगा| सौदे की आड़ में उस पर तरह-तरह के दबाव डाले जाएंगे| यह धेनु-मुद्रा नहीं, सिंह -मुद्रा धारण करने का समय है| यह मौका है, जब भारत तीसरी दुनिया का प्रामणिक प्रतिनिधि और प्रबल प्रवक्ता बन सकता है| भारत चाहे तो इस परमाणु-प्रसंग का इस्तेमाल करके संयुक्तराष्ट्र संघ का ढांचा ही बदल सकता है| पंच दादाओं की दुकान के बदले संयुक्तराष्ट्र को वह वास्तविक विश्व-संस्था बना सकता है| वह 21वीं सदी की अन्तरराष्ट्रीय राजनीति को नए सांचे में ढाल सकता है| क्या हमारे राजनीतिक प्रतिष्ठान में इतना माद्दा है ?

                


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