tag:blogger.com,1999:blog-5193503887693300352024-02-19T11:06:48.981+05:30Dr. Ved Pratap Vaidik Articlesयोगेन्द्र सिंह शेखावतhttp://www.blogger.com/profile/02322475767154532539noreply@blogger.comBlogger6125tag:blogger.com,1999:blog-519350388769330035.post-38426137008192356852010-07-17T23:34:00.000+05:302010-07-17T23:34:20.563+05:30नेपाल से खरी-खरी<div style="text-align: center;"><b>दैनिक भास्कर</b></div><div style="text-align: center;"><br />
</div><div style="text-align: center;">9 सितंबर 2009</div><div style="text-align: center;"><br />
</div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><b>नेपाल से खरी-खरी</b></span></div><div style="text-align: center;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">नेपाल का हाल भी अजीब है| जरा दो मामलों पर गौर कीजिए-एक उपराष्ट्रपति की हिंदी शपथ का और दूसरा पशुपतिनाथ मंदिर के पुजारियों का ! यूं तो ये नेपाल के आंतरिक मामले मालूम पड़ते हैं और कहा जा रहा है कि इनका भारत से क्या लेना-देना ? लेकिन सच्चाई यह है कि ये दोनों मामले जुड़े हुए हैं और ये भारत पर नेपाल के भारत-विरोधी तत्वों का सीधा प्रहार हैं| यदि ये मामले भारत से जुड़े हुए नहीं भी होते| इनका चर्चा तक नहीं होता|</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> उप-राष्ट्रपति परमानंद झा ने अगर हिंदी में शपथ ले ली तो कौनसा देश-द्रोह कर दिया ? अगर वे अंग्रेजी में शपथ लेते तो क्या उसे भी देश-द्रोह कहा जाता ? नहीं कहा जाता, क्योंकि अंग्रेजी बि्रटेन की भाषा है, भारत की नहीं| हिंदी में शपथ लेना पाप है, क्योंकि वह भारत की भाषा है| नेपाल के पहाड़ी नागरिकों का यह विरोध हिंदी-विरोध नहीं है, यह भारत-विरोध है| यदि यह उनका हिंदी-विरोध होता तो वे हिंदी लिखते-बोलते-पढ़ते क्यों ? हिंदी सिनेमा और सीरियलों के पीछे वे पागल क्यों हुए रहते हैं ? लाखों की संख्या में वे हिंदी क्यों सीखते और भारत आकर नौकरियां क्यों करते ? झा की हिंदी-शपथ को विरोध करनेवाले नेपाली हिंदी को भारत के वर्चस्व का प्रतीक मानते हैं| वे मानते हैं कि नेपाल के मधेसी हिंदी के बहाने भारत को हमारे सिर पर थोप रहे हैं| यह ठीक है कि नेपाल के मधेसी लोग घर में भोजपुरी, मैथिली, अवधी आदि बोलते हैं लेकिन उनकी संपर्क और सामूहिक पहचान की भाषा हिंदी है| उनकी जनसंख्या नेपाल की आधी के बराबर है| इस बार संसद में भी उनका प्रतिनिधित्व जोरदार है| राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति भी मधेसी ही बने हैं| यदि वे संसद में हिंदी बोलें तो इसमें गलत क्या है? सदभावना पार्टी के संस्थापक स्व. गजेन्द्र नारायण सिंह जब नेपाली संसद में धोती-कुर्ता पहनकर जाते और हिंदी बोलते तो उन्हें निकाल बाहर किया जाता था| अब से लगभग 20 साल पहले स्पीकर दमनप्रसाद धुंगाना ने मेरे आग्रह पर गजेंद्र बाबू को स्ववेश पहनने और स्वभाषा बोलने की अनुमति दी थी लेकिन 20 वर्षों में नेपाल के उग्र राष्ट्रवादी तत्व इस लोकतांत्रिक प्रगति को पचा नहीं पाए और उन्होंने उप-राष्ट्रपति परमानंद झा के विरूद्घ कृत्सित अभियान छेड़ दिया है| उन्होंने झा के विरूद्घ उच्चतम न्यायालय में मुकदमे दायर किए है और उनके विरूद्घ काठमांडो में उत्तेजक प्रदर्शन किए है| उन्हें जान से मारने की धमकी भी दी है लेकिन झा है कि डटे हुए है| उन्होंने उच्चतम न्यायालय के फैसले को मानने से मना कर दिया है| उन्होंने न तो दुबारा नेपाली में शपथ ली है और न ही उप-राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दिया है| वे छुट्रटी पर चले गए हैं| परमानंद झा नेपाल के लाखों मधेसियों के महानायक बन गए हैं| यों तो नेपाल के उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर रह चकु हैं लेकिन उनके इस संघर्ष ने उन्हें नेपाल के इतिहास पुरूषों की श्रेणी में बिठा दिया है| वे चाहते तो उच्चतम न्यायालय के आदेश को मान लेते और दुबारा नेपाली में शपथ ले लेते लेकिन उन्होंने कुर्सी के मुकाबले अपनी सामूहिक अस्मिता को अधिक महत्व दिया| उन्होंने कहा कि उन्होंने हिंदी में हू-बहू वही शपथ ली है, जो मूल नेपाली में है| वे शपथ का अनुवाद करते गए और बोलते गए| अंतरिम संविधान में कहीं नहीं लिखा है कि शपथ केवल नेपाली भाषा में ही लेनी चाहिए| यदि संविधान भाषा, जात और मजहब के आधार पर भेदभाव के विरूद्घ है तो वह हिंदी में शपथ लेने के विरूद्घ कैसे हो सकता है ? परमानंद झा की देखादेखी माधव नेपाल मंत्रिमंडल के दो अन्य सदस्यों - लक्ष्मणलाल कर्ण और सरोजकुमार यादव ने भी हिंदी में शपथ ली है| कलावती दुसाध ने भोजपुरी में शपथ ली है| नेपाल का न्यायालय कहां-कहां हथेली अड़ाएगा ? संपूर्ण मधेस की जनता आज परमानंद झा के साथ है| क्या नेपाल के उग्र राष्ट्रवादी लोग नेपाल को दो हिस्सों में बांटना चाहते हैं ? क्या वे वहां श्रीलंका-जैसी स्थिति पैदा करना चाहते हैं ? नेपाल के उग्र राष्ट्रवादियों का यह तर्क बिल्कुल बोदा है कि हिंदी भारत की भाषा है, इसीलिए वे इसे स्वीकार नहीं करेंगे| क्या उन्हें पता नहीं कि भारत के संविधान में नेपाली भाषा को भी अन्य भारतीय भाषाओं के बराबर ही मान्यता प्राप्त है ? क्या वे 'भारतीय' होने के कारण नेपाली भाषा को भी रद्रद कर देंगे ? यदि इस तर्क को आगे बढ़ाएंगे तो पाकिस्तान में उर्दू, बांग्लादेश में बांग्ला और श्रीलंका में तमिल का भी कोई संवैधानिक स्थान नहीं हो सकता, क्योंकि ये सब भाषाएं भी भारत की संवैधानिक भाषाए हैं| दक्षिण एशिया की संरचना ही ऐसी है कि एक-दूसरे की भाषाओं, मजहबों, जातियों आदि का विस्तार एक-दूसरे की सीमाओं के भीतर तक है| इसी यथार्थ की स्वीकृति नेपाल के भावी संविधान में होनी है| नेपाली और हिंदी, दोनों राजभाषाएं बनकर रहेंगी| ऐसी स्थिति मे नेपाली न्यायालय और नेपाल राष्ट्रवादियों को यह नया सिरदर्द खड़ा करने की जरूरत क्या है ?</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> माओवादियों की स्थिति भी विचित्र् है| उन्होंने न्यायालय के निर्णय की आलोचना की है लेकिन उन्होंने उप-राष्ट्रपति को भी गलत कहा है| उनका कहना है कि उप-राष्ट्रपति भोजपुरी या मैथिली में शपथ लेते तो ठीक रहता याने उन्होंने हिंदी में शपथ क्यों ली ? न्यायालय की आलोचना उन्होंने इसीलिए की कि वे मधेसियों से बैर मोल नहीं लेना चाहते| वे जन-विरोधी दिखाई नहीं पड़ना चाहते| इसीलिए उन्होंने भोजपुरी-मैथिली का दाव भी मार दिया लेकिन उनका हिदी-विरोध, शुद्घ भारत-विरोध है| भारत विरोध का ही दूसरा पैंतरा है, पशुपतिनाथ मंदिर के पुजारियों का अपमान ! पुजारी हिंदू हैं, ब्राह्रमण हैं, शास्त्रनुयायी हैं, सुप्रशिक्षित हैं लेकिन उनका एकमात्र् दोष यही है कि वे भारतीय हैं| अगर वे भारत के नागरिक नहीं होते, इंडोनेशिया या पाकिस्तान या मोरिशस के होते तो माओवादियों को कोई आपत्ति नहीं होती| माओवादी सैकड़ों वर्षो से चली आ रही इस परंपरा को आखिर क्यों तोड़ना चाहते हैं ? वे मानते हैं कि जैसे हिंदी भारत के वर्चस्व का प्रतीक है वैसे ही भारतीय पुजारी भी भारतीय दादागिरी का प्रतीक हैं| भारत को चुनौती दिए बिना नेपाल का राष्ट्रवाद पंगु है ? नेपाल में राष्ट्रवाद और साम्यवाद का यह जहरीला घालमेल क्या किसी फाशीवाद से कम है ? माओवादी सरकार ने भारतीय पुजारियों को हटा दिया था| अब एमाले-सरकार का यह कर्तव्य है कि उसने कर्नाटक से जो पुजारी बुलवाए हैं, उनके सम्मान की रक्षा में वह कोई कसर न छोड़े| हिंदी का सवाल हो या भारतीय पुजारियों का सवाल, भारत सरकार को भी दो-टूक राय रखनी चाहिए| उसे नेपाल की सरकार और भारत-विरोधी ताकतों दोनों को बता देना चाहिए कि वे मर्यादा-भंग न करे, वरना उसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे| यह नहीं हो सकता कि नेपाल को भारत 2000 करोड़ की आर्थिक सहायता भी दे और वहां वह भारत-विरोधी अभियानों को भी बर्दाश्त करता रहे| चीन और पाकिस्तान, भारत की इस नरमी का काफी बेजा फायदा उठा रहे हैं| नेपाल अरबो-खरबों के नकली नोटों का अड्रडा बनता जा रहा है और चीनी सरकार नेपाली फौज में भी घुसपैठ के रास्ते तलाश रही है| पड़ौसी देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना उचित नहीं है लेकिन नेपाल में आजकल जो हो रहा है, वह भारत की सुरक्षा के लिए सीधा खतरा बन सकता है| इसके अलावा दक्षिण एशिया के सबसे बड़े राष्ट्र होने के नाते यह देखना भी उसका कर्त्तव्य है कि पड़ौसी देशों में कहीं गृह-युद्घ की खिचड़ी तो नहीं पक रही है| नेपाल की रक्षा और भारत की रक्षा अलग-अलग नही है| भारत पर प्रहार करके नेपाल स्वयं को सुरक्षित कैसे रख सकता है ? </span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br />
</span></div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><i>ए-19 प्रेस एन्क्लेव नई दिल्ली-17-फोन-2686-7700, 2651-7295, मो.-98-9171-1947</i></span></span></div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><i>Dr.vaidik@gmail.com</i></span></span></div>योगेन्द्र सिंह शेखावतhttp://www.blogger.com/profile/02322475767154532539noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-519350388769330035.post-10909246501308945372010-07-17T22:58:00.001+05:302010-07-17T23:11:19.969+05:30भारत धारण करे, सिंह-मुद्रा !<div style="text-align: center;"><b>राष्ट्रीय सहारा</b></div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br />
</span></div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">29 सितंबर 2009</span></div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br />
</span></div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><b>भारत धारण करे, सिंह-मुद्रा !</b></span></div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br />
</span></div><div style="text-align: right;"><b> - डॉ. वेदप्रताप वैदिक</b></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> ऐसा कहा जा रहा है कि सुरक्षा-परिषद् के ताजातरीन प्रस्ताव का भारत-अमेरिकी परमाणु सौदे पर कोई असर नहीं पड़ेगा| प्रधानमंत्री को अमेरिकी नेताओं ने आश्वस्त कर दिया है और वे गद्रगद् हैं| लेकिन इसमें गद्रगद् होने की बात क्या है ? भारत को गद्रगद् तो तब होना चाहिए, जब सुरक्षा परिषद् उसे वह मान्यता दे, जो उसने अन्य पांच परमाणु शस्त्र्-संपन्न राष्ट्रों को दे रखी है| यदि भारत को अमेरिका, रूस, चीन, बि्रटेन और फ्रांस की तरह बाक़ायदा छठा परमाणु राष्ट्र मान लिया जाए तो वाकई कोई बात है| वरना सुरक्षा परिषद का 1887 प्रस्ताव भारत जैसे देशों के लिए बहुत अन्यायकारी और खतरनाक सिद्घ हो सकता है| </span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> इस प्रस्ताव के मुख्य रूप से दो लक्ष्य हैं| पहला, विश्व में परमाणु-शस्त्रें को नियंत्रित करना और दूसरा, परमाणु अप्रसार संधि को सभी राष्ट्रों पर लागू करना| यह दूसरा लक्ष्य कम से कम चार राष्ट्रों को अपने शिकंजे में ले सकता है| ये चार राष्ट्र हैं, भारत, पाकिस्तान, उ. कोरिया और इस्राइल| भारत, पाकिस्तान और इस्राइल ने अभी तक इस संधि पर दस्तखत नहीं किए हैं जबकि दुनिया के लगभग सभी राष्ट्रों ने कर दिए हैं| उ. कोरिया ने भी कर दिए थे लेकिन उसने यह संधि रद्द कर दी और परमाणु हथियार बना लिए| ईरान भी संधि का सदस्य है लेकिन वह भी परमाणु शक्ति बनने की फि़राक में है| जिन पांच महाशक्तियों ने पहले से परमाणु शस्त्रस्त्र् बना रखे हैं, वे अपने एकाधिकार को अक्षुण्ण बनाए रखना चाहती हैं| इसलिए उन्होंने परमाणु-अप्रसार संधि का कवच खड़ा किया है ताकि जिन राष्ट्रों के पास परमाणु हथियार नहीं हैं, वे कभी भी उन्हें बना न सकें| यह संधि अ-परमाणु राष्ट्रों के स्थाई खस्सीकरण का दस्तावेज़ है| जो इस पर दस्तखत करते हैं, उनकी संपूर्ण परमाणु गतिविधियों पर वियना की परमाणु एजेंसी नज़र रखती है| अगर वे बम बनाने की कोशिश करेंगे तो उन्हें दुनिया का कोई भी राष्ट्र परमाणु तकनीक, ईंधन, कल-पुर्जे, भटि्ठयां आदि कतई नहीं देगा| उनका शांतिपूर्ण परमाणु-कार्यक्रम भी ठप्प कर दिया जाएगा| भारत ने इस परमाणु सामंतवाद का सदा विरोध किया है| अब सुरक्षा परिषद ने जो प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया है, उसमें ईरान और उ. कोरिया का तो नाम भी लिया गया है लेकिन भारत, पाकिस्तान और इस्राइल को भी नाम लिए बिना कहा है कि वे भी परमाणु-अप्रसार संधि पर दस्तखत करें| यह संधि सब पर लागू हो| इसका कोई अपवाद न हो| इस संधि का जो भी उल्लघंन करे, उसके विरूद्घ कार्रवाई हो| यह प्रस्ताव असाधारण है| अमेरिका पहली बार सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष बना है| सुरक्षा परिषद के पांचों स्थायी और शेष सभी अस्थायी सदस्यों ने एकमत से इस प्रस्ताव का समर्थन किया है| सभी 15 सदस्य राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्ष बैठक में उपस्थित थे| ऐसा संयुक्तराष्ट्र के इतिहास में सिर्फ पांच बार हुआ है| अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने यह प्रस्ताव रखा और सुरक्षा परिषद ने इस पर मुहर लगा दी| </span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> भारत के संयुक्तराष्ट्र प्रतिनिधि ने तत्काल इस प्रस्ताव का विरोध किया है| उसका तर्क सबल है कि भारत ने इस संधि पर दस्तखत ही नहीं किए हैं| इसलिए उस पर यह लागू ही नहीं होती| किसी संधि पर कोई संप्रभु राष्ट्र दस्तखत करे या न करे, इसकी पूर्ण स्वतंत्र्ता उसे है| यदि नहीं है तो फिर वह संप्रभु कैसे हुआ ? भारत ने इस भेदभावपूर्ण संधि को न पहले स्वीकार किया था और न ही वह इसे भविष्य में स्वीकार करेगा| यह बात अपने आप में ठीक है लेकिन काफी नरम है| यह बचाव की मुद्रा है| एक तरह का दब्बूपन है| समझ में नहीं आता कि हमें पांच परमाणु दादाओं से दबने की जरूरत क्या है ? वे क्या कर लेंगे ? जब हमने 1974 और 1998 में परमाणु-परीक्षण किए तो क्या हम उनसे दबे ? उन्होंने खिसियाकर भारत पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा दिए और अब खुद ही मजबूर होकर भारत के साथ परमाणु-सौदा कर लिया| क्यों किया ? यदि भारत ने संधि को चुनौती दी है और वह उद्रंदड राष्ट्र (रोग स्टेट) है तो आपने उसके साथ सौदा ही क्यों किया ? 45 सदस्यीय 'परमाणु सप्लायर्स ग्रुप' उसे परमाणु तकनीक, ईंधन, कल-पुर्जे आदि देने को बेताब क्यों है ? उन्हें पता है कि भारत का रास्ता खोलकर वे करोड़ों-अरबों डॉलर कमाएंगे| वे यह भी जानते हैं कि भारत पाकिस्तान की तरह गैर-जिम्मेदार राष्ट्र नहीं है| उसके परमाणु शस्त्रस्त्र् आतंकवादियों के हाथ नहीं लग सकते| उसने अपने परमाणु हथियार पाकिस्तान की तरह चोरी-छिपे नहीं बनाए हैं| वह पैसे के लालच या मज़हब के नशे में आकर परमाणु-प्रसार का कुत्सित कर्म कभी नहीं करेगा| यदि ऐसा है तो वे भारत को नया और छठा परमाणु-राष्ट्र क्यों नही मानते ? यदि मान लें तो भारत तत्काल परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत कर देगा| अन्य पांच परमाणु राष्ट्रों की तरह वह भी सामंती जकड़ से मुक्त हो जाएगा| भारत का परमाणु-आचरण अमेरिका और चीन से कहीं बेहतर रहा है| इन दोनों राष्ट्रों की कृपा के बिना क्या पाकिस्तान और उ. कोरिया परमाणु हथियार बना सकते थे ? अमेरिका और चीन अपने संकीर्ण स्वार्थों के वशीभूत हो गए| उन्होंने परमाणु अप्रसार संधि की पीठ में छुरा भोंक दिया| भारत ने न कभी वैसा किया और न कभी वह वैसा करेगा| </span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> भारत अपने आप में एक परमाणु सच्चाई है| उसे नकारनेवाला कोई भी प्रस्ताव न तो कानूनी है न यथार्थवादी ! भारत को चाहिए कि वह इस प्रस्ताव को खुली चुनौती दे और ऐसी संधि की मांग करे, जो सभी राष्ट्रों के लिए समान हो| भारत की मुद्रा बचाव की नहीं, आक्रमण की हो| यदि भारत ऐसी आक्रामक मुद्रा धारण नहीं करेगा तो इस बात की पूरी संभावना है कि उसे परमाणु-पंगु बना दिया जाएगा| उसे न तो नए परीक्षण करने दिए जाएंगे और न ही नए हथियार बनाने दिए जाएंगे| भारत-अमेरिकी परमाणु-सौदा उसके गले का पत्थर बन जाएगा| भारत परमाणु-बौना बनकर रह जाएगा| सौदे की आड़ में उस पर तरह-तरह के दबाव डाले जाएंगे| यह धेनु-मुद्रा नहीं, सिंह -मुद्रा धारण करने का समय है| यह मौका है, जब भारत तीसरी दुनिया का प्रामणिक प्रतिनिधि और प्रबल प्रवक्ता बन सकता है| भारत चाहे तो इस परमाणु-प्रसंग का इस्तेमाल करके संयुक्तराष्ट्र संघ का ढांचा ही बदल सकता है| पंच दादाओं की दुकान के बदले संयुक्तराष्ट्र को वह वास्तविक विश्व-संस्था बना सकता है| वह 21वीं सदी की अन्तरराष्ट्रीय राजनीति को नए सांचे में ढाल सकता है| क्या हमारे राजनीतिक प्रतिष्ठान में इतना माद्दा है ?</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> </span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br />
</span></div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><i>ए-19 प्रेस एन्क्लेव नई दिल्ली-17-फोन-2686-7700, 2651-7295, मो.-98-9171-1947</i></span></span></div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><i> dr.vaidik@gmail.com</i></span></span></div>योगेन्द्र सिंह शेखावतhttp://www.blogger.com/profile/02322475767154532539noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-519350388769330035.post-74656893866522551622010-07-17T22:43:00.000+05:302010-07-17T22:43:20.416+05:30सादगी का गेम शो<div style="text-align: center;"><b>दैनिक भास्कर</b></div><div style="text-align: center;"><br />
</div><div style="text-align: center;">23 Sept. 2009</div><div style="text-align: center;"><br />
</div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;"><b>सादगी का गेम शो</b></span></div><div style="text-align: center;"><br />
</div><div style="text-align: right;"><b>- डॉ. वेदप्रताप वैदिक</b></div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"> किसे सादगी कहें और किसे अय्याशी ? हवाई जहाज की 'इकॉनामी क्लास' में यात्रा को सादगी कहा जा रहा है| इन सादगीवालों से कोई पूछे कि हवाई-जहाज में कितने लोग यात्रा करते हैं ? मुश्किल से दो-तीन करोड़ लोग ! 100 करोड़ से ज्यादा लोग तो हवाई जहाज को सिर्फ आसमान में उड़ता हुआ ही देखते हैं| तो हवाई- यात्रा सादगी हुई या अय्याशी ? देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो साल में एक बार भी रेल यात्रा तक नहीं करते| करोड़ों ऐसे हैं कि रेल और जहाज उनकी पहुंच के ही परे हैं| करोड़ों लोग ऐसे भी हैं, जो कभी कार में ही नहीं बैठे| तो क्या मोटर कार, रेल और जहाज में यात्रा करने को अय्याशी माना जाए ? नहीं माना जा सकता| जिन्हें जरूरत है और जिनके पास पैसे हैं, वे यात्रा करेंगे| उन्हें कौन रोक सकता है ? वे यह भी चाहेंगे कि विशेष श्रेणियों में यात्रा करें| सवाल सिर्फ आराम का ही नहीं है, रूतबे का भी है| रूतबा असली मसला है, वरना दो-तीन घंटे की हवाई- यात्रा और पांच-छह घंटे की रेल- यात्रा में कौन थककर चूर हो सकता है| अगर पूरी रात की रेल या जहाज की यात्रा है तो रेल की शयनिका या जहाज की 'बिजनेस क्लास' को अय्याशी कैसे कहा जा सकता है ? जिन्हें गंतव्य पर पहुंचकर तुरंत काम में जुटना है, उनके लिए यह आवश्यक सुविधा है|</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"> लेकिन हमारे नेताओं ने कई 'अनावश्यक सुविधाओं' को 'आवश्यक सुविधा' में बदल दिया है| माले-मुफ्त, दिले-बेरहम | नेताओं के आगे रोज़ नाक रगड़नेवाले धनिक अगर इन सुविधाओं को भोग रहे हैं तो नेता पीछे क्यों रहें ? पांच-सितारा होटलों में रहनेवाले नेता क्या सच बोल रहे हैं ? देश के बड़े से बड़े पूंजीपति की भी हिम्मत नहीं कि वह अपने रहने पर एक-डेढ़ लाख रू. रोज़ महिनों तक खर्च कर सके| वह नेता ही क्या, जो अपनी जेब से पैसा खर्च करे| या तो कोई पूंजीपति उसका बिल भरता है या डर के मारे होटल ही उसे लंबी रियायत दे देता है| मंत्रियों ने यह कहकर पिंड छुड़ा लिया कि होटलों के साथ 'उनका निजी ताल-मेल' है| पत्रकारों को खोज करनी चाहिए थी कि यह निजी ताल-मेल कैसा है? यदि ये मंत्री लोग अपना पैसा खर्च कर रहे होते तो प्रणब मुखर्जी को कह देते कि भाड़ में जाए, आपकी सादगी ! हमारी जीवन-शैली यही है| हम ऐसे ही रहेंगे, जैसा कि मुहम्मद अली जिन्ना कहा करते थे| वे यह भी पूछ सकते थे कि मनमोहनजी, प्रणबजी, सोनियाजी, अटलजी, आडवाणीजी ! जरा यह तो बताइए कि आपके घर कौनसी पांच-सितारा होटलों से कम हैं ? क्या उनका किराया दो-तीन लाख रू. रोज से कम हो सकता है ? डॉ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि भारत का आम आदमी तीन आने रोज़ पर गुजारा करता है और प्रधानमंत्री (नेहरू) पर 25 हजार रू. रोज खर्च होते हैं ! आज हमारे मंत्रियों पर उनके रख-रखाव, सुरक्षा और यात्र पर लाखों रू. रोज़ खर्च होते हैं जबकि 80 करोड़ लोग 20 रू. रोज़ पर गुजारा करते है| सिर्फ पांच-सितारा होटल छोड़कर कर्नाटक भवन या केरल भवन में रहने से सादगी का पालन नहीं हो जाता और न ही साधारण श्रेणी में यात्र करने से ! ये कोरा दिखावा है लेकिन यह दिखावा अच्छा है| इस दिखावे के कारण देश के पांच-सात लाख राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं को कुछ शर्म तो जरूर आएगी, जैसे कि एक सांसद को आई थी, सोनियाजी को इकॉनामी क्लास में देखकर ! साधारण लोगों पर भी इसका कुछ न कुछ असर जरूर पड़ेगा|</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"> लेकिन इससे देश की समस्या का हल कैसे होगा ? बाहर-बाहर सादगी और अंदर-अंदर अय्रयाशी चलती रहेगी| सादगी हमारा आदर्श नहीं है| हमने हमारे समाज को अय्रयाशी की पटरी पर डाल दिया है और हम चाहते हैं कि हमारी रेल सादगी के स्टेशन पर पहुंच जाए| हमने रास्ता केनेडी और क्लिंटन का पकड़ा है और हम चाहते हैं कि हम लोहिया और गांधी तक पहुंच जाएं| नेताओं के दिखावे से हम आखिर कितनी बचत कर पाएंगे ? बचत और सादगी का संदेश देश के दहाड़ते हुए मध्य-वर्ग तक पहुंचना चाहिए| हम यह न भूलें कि जो राष्ट्र अय्रयाशी के चक्कर में फंसते हैं, वे या तो दूसरे राष्ट्रों का खून पीते हैं या अपनी ही असहाय जनता का! रक्तपान के बिना साम्राज्यवाद और पूंजीवाद जिंदा रह ही नहीं सकते| गांधीजी ठीक ही कहा करते थे कि प्रकृति के पास इतने साधन ही नहीं हैं कि सारे संसार के लोग अय्याशी में रह सके| हमने अपने देश के दो टुकड़े कर दिए हैं| एक का नाम है, 'इंडिया' और दूसरे का है, 'भारत' ! इंडिया अय्याशी का प्रतीक है और भारत सादगी का ! भारत की छाती पर हमने इंडिया बैठा दिया है| 'इंडिया' के भद्रलोक के लिए ही पांच-सितारा होटलें हैं, चमचमाती बस्तियां हैं, सात-सितारा अस्पताल हैं, खर्चीले पब्लिक स्कूल हैं, मनोवांछित अदालते हैं| चिकनी सड़कें, वातानुकूलित रेलें और जहाज हैं जबकि 'भारत' के (अ) भद्रलोक के लिए अंधेरी सरायें हैं, गंदी बस्तियां हैं, बदबूदार अस्पताल हैं, टूटे-फूटे सरकारी स्कूल हैं, तिलिस्मी अदालते हैं, गड्रढेदार सड़के हैं, खटारा बसें हैं और मवेशी-श्रेणी के रेल के डिब्बे हैं| जब तक यह अंतर कम नहीं होता, जब तक समतामूलक समाज नहीं बनता, जब तक देश में प्रत्येक व्यक्ति के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा, न्याय, सुरक्षा और मनोरंजन की न्यूनतम व्यवस्था नहीं होती, सादगी सिर्फ दिखावा भर बनी रहेगी| हमारे नेतागण अपनी शक्ति 'भारत' से प्राप्त करते हैं और उसका उपयोग 'इंडिया' के लिए करते हैं| 'भारत' की सादगी उसकी मजबूरी है| उसका आदर्श भी 'इंडिया' ही है| इसीलिए हर आदमी चूहा-दौड़ में फंसा हुआ है| मलाई साफ़ करने पर तुला हुआ है| उसे कानून-क़ायदे, लोक-लाज और लिहाज़-मुरव्वत से कोई मतलब नहीं है| इस मामले में नेता सबसे आगे हैं| जो जितना बड़ा नेता, वह उतने बड़े ठाठ-बाठ में रहेगा| इस जीवन-शैली पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होती| उल्टे, दिल में यह हसरत जोर मारती रहती है कि हाय, हम नेता क्यों न हुए ? अगर आम लोगों को इस अय्याशी पर एतराज़ होता तो वे चौराहों पर नेताओं को पकड़-पकड़कर उनकी खबर लेते, उनकी आय और व्यय पर पड़े पर्दो को उघाड़ देते और भ्रष्टाचार के दैत्य का दलन कर देते| यह कैसे होता कि अकेली दिल्ली में नेताओं के बंगलों के रख-रखाव पर 100 करोड़ रू. खर्च हो जाते और देश के माथे पर जूं भी नहीं रेंगती| हमारे नेता और अफसर हर साल अरबों रू. की रिश्वत खा जाते हैं और आज तक किसी नेता ने जेल की हवा नहीं खाई | जापान और इटली में भ्रष्टाचार के कारण दर्जनों सरकारें गिर गईं और ताइवन के प्रसिद्घ राष्ट्रपति चेन जेल में सड़ रहे हैं लेकिन हमारे सारे नेता राजा हरिशचंद्र बने हुए हैं| हमारे नेता और अफसर इसीलिए राजा हरिशचंद्र का नक़ाब ओढ़े रहते हैं कि भारत के लोगों ने भ्रष्टाचार को ही शिष्टाचार मान लिया है| यह राष्ट्रीय स्वीकृति ही हमारे लोकतंत्र् का कैंसर है| यह कैंसर शासन, प्रशासन, संसद, अदालत और सारे जन-जीवन में फैल रहा है| इसे देखकर अब किसी को गुस्सा भी नहीं आता| अय्रयाशी ही भ्रष्टाचार की जड़ है| ठाठ-बाट, अय्याशी और दिखावा हमारे राष्ट्रीय मूल्य बन गए हैं| अय्याशी के दिखावे को सादगी के दिखावे से कुछ हद तक काटा जा सकता है लेकिन जिस देश में अय्रयाशी सत्ता और संपन्नता का पर्याय बनती जा रही हो, वहां सादगी का दिखावा कुछ ही दिनों में दम तोड़ देगा| यह ठीक है कि विदेह की तरह रहनेवाले सम्राट जनक, प्लेटो के दार्शनिक राजा, अपनी मोमबत्तीवाले कौटिल्य, टोपी सीनेवाले औरंगजेब और प्रारंभिक इस्लामी खलीफाओं की तरह नेता खोज पाना आज असंभव है लेकिन सादगी अगर सिर्फ दिखावा बनी रही और अय्याशी आदर्श तो मानकर चलिए कि भारत को रसातल में जाने से कोई रोक नहीं सकता ! </div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"> </div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><i>ए-19 प्रेस एन्क्लेव नई दिल्ली-17-फोन-2686-7700, 2651-7295, मो.-98-9171-1947</i></span></div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="color: #660000;"><i>dr.vaidik@gmail.com</i></span></div>योगेन्द्र सिंह शेखावतhttp://www.blogger.com/profile/02322475767154532539noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-519350388769330035.post-19765612321008402402010-07-17T22:36:00.001+05:302010-07-17T22:36:36.656+05:30करजई बने सबकी मजबूरी<span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial; font-size: small;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: 13px; line-height: normal;"></span></span><br />
<span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial; font-size: small;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: 13px; line-height: normal;"><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium;"><b>दैनिक भास्कर</b></span></div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium;"><br />
</span></div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium;">17 सितंबर 2009 </span></div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium;"><br />
</span></div><div style="text-align: center;"><b><span class="Apple-style-span" style="font-size: x-large;">करजई बने सबकी मजबूरी</span></b></div><div style="text-align: center;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: medium;"> </span><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> अफगानिस्तान में राष्ट्रपति का चुनाव किसने जीता है, इसकी अधिकारिक घोषणा अभी तक नहीं हुई है लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है ? यह निश्चित है कि डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला के वोट 28 प्रतिशत से कूदकर 54 प्रतिशत के आंकड़े को नहीं छू सकते| वे 50 प्रतिशत तक भी नहीं पहुंच सकते| यदि पहुंच जाते तो यह चुनाव दुबारा होता| हामिद करज़ई और अब्दुल्ला के बीच एक टक्कर और होती और जिसे भी 50 प्रतिशत से अधिक वोट मिलते, वह राष्ट्रपति चुना जाता| अफगानिस्तान के स्वतंत्र् चुनाव आयोग ने सैकड़ों शिकायतों को दर्ज किया है| वह उनकी जांच करेगा और लगभग 80 मतदान-केंद्रों के मतदान को ही उसने रद्द कर दिया है| दुबारा मतदान और दुबारा मत-गणना में कुछ समय लगेगा| तब तक चुनाव-परिणाम की घोषणा रूकी रहेगी लेकिन अगर यह मान लें कि सारे विवादास्पद वोटों का एक बड़ा हिस्सा अब्दुल्ला को मिल जाएगा तो भी हामिद करज़ई के वोट 50 प्रतिशत से ज्यादा ही रहेंगे| यदि करज़ई और अब्दुल्ला में दुबारा मुकाबला हुआ तो भी जीत तो करज़ई की ही होगी| याने 41 उम्मीदवारों के इस चुनाव में करज़ई का दुबारा राष्ट्रपति चुना जाना लगभग तय ही है|</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> करज़ई को दुबारा यह सफलता कैसे मिल रही है ? इसका रहस्य क्या है ? पिछले आठ साल के शासन में अफगानिस्तान की हालत में कोई खास सुधार नहीं हुआ है| लोगों की आर्थिक स्थिति बिगड़ी है, बेकारी-भुखमरी बढ़ी है| सुरक्षा का हाल यह है कि जो तालिबान आठ साल पहले काबुल से सिर पर पांव रखकर भाग खड़े हुए थे, आज वे लगभग 90 प्रतिशत अफगानिस्तान में दुबारा जम गए हैं| उन्होंने करज़ई के अनेक मंत्र्ियों, राज्यपालों और बड़े अफसरों की हत्या कर दी है| उन्होंने भारतीय और केनेडियन दूतावासों पर हमला बोला है और सबसे अधिक सुरक्षित काबुल की सीरिना होटल और मंत्रलयों में घुसकर लोगों को मार दिया है| उनके डर के मारे काबुल शहर एक विशाल किला बन गया है| स्वयं राष्ट्रपति करज़ई राजमहल में ही घिरे रहते हैं| साधारण अफगान लोग करज़ई को अमेरिका की कठपुतली बोलते हैं और उन्हें बहुत ही कमज़ोर शासक मानते हैं| उनके सगे-संबंधियों के भ्रष्टाचार के किस्से घर-घर में सुने जा सकते हैं| करज़ई न तो कोई दक्ष फौज खड़ी कर सके और न ही नौकरशाही ! अमेरिकी भी उनसे नाराज़ हो चले थे| बराक ओबामा ने राष्ट्रपति बनने के पहले जो संकेत दिए थे, उनसे लगता था कि वे करज़ई को चलता कर देंगे| अमेरिकी सरकार और करज़ई के बीच खुले में कहा-सुनी भी शुरू हो गई थी| तो फिर ऐसा क्या हुआ कि करज़ई टिक गए और टिके ही नहीं, चुनाव भी जीत गए ?</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> सबसे पहली बात तो यह है कि करज़ई जात के पश्तून हैं| अफगानिस्तान में पश्तूनों की संख्या 40 से 50 प्रतिशत के बीच मानी जाती है| जन-गणना के ठोस आंकड़े नहीं होने के कारण कुछ लोग यह भी कहते हैं कि जिस देश में 60 प्रतिशत पश्तून या पठान रहते हों, वहां कोई ताजि़क या उज़बेक या हजारा 'साहिबे-मुल्क' कैसे बन सकता है ? यदि बन भी जाए तो उसकी गाड़ी पहले दिन ही ठप्प हो जाएगी, जैसे कि फारसीभाषी राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी की हो गई थी| पिछले आठ साल में अमेरिका किसी ऐसे पठान को नहीं ढूंढ पाया, जो करज़ई की जगह बिठाया जा सके| एक दो पठान उम्मीदवार काबिल जरूर हैं लेकिन उन्हें इतने कम वोट मिले हैं कि उनकी कहीं कोई गिनती ही नहीं है| डॉ. अब्दुल्ला के पिता पठान और मॉ ताजि़क हैं| वे छह साल तक करज़ई के विदेश मंत्र्ी भी रहे लेकिन वे उस 'उत्तरी-गठबंधन' के सूरमाँ रहे हैं, जो गैर-पश्तून माना जाता है| डॉ. अब्दुल्ला को गैर-पश्तूनों के वोट जमकर मिले हैं, क्योंकि उन्हें अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों-ताजि़कों, उज़बेकों, हजाराओं - आदि का प्रतिनिधि माना जाता है| यदि उन्हें सचमुच सभी अल्पसंख्यकों के वोट मिल जाते तो उनके वोट करज़ई के वोटों से ज्यादा होते लेकिन करज़ई की जीत का दूसरा कारण यह है कि उन्होंने अब्दुल्ला के वोट-बैंक में जबर्दस्त सेंध लगा दी है| उन्होंने सभी अल्पसंख्यकों के अनेक बड़े नेताओं से जबर्दस्त सांठ-गांठ कर ली ! ताजि़कों के प्रसिद्घ नेता फील्ड मार्शल कासिम फहीम को उन्होंने अपना भावी उपराष्ट्रपति घोषित कर दिया, उज़बेकों के निर्वासित नेता रशीद दोस्तम को तुर्की से वापस बुलवा लिया, हजाराओं के जाने-माने रहनुमा मुहम्मद मोहकिक को भी उन्होंने साथ ले लिया| इसके अलावा करज़ई के जीतने का तीसरा कारण यह है कि उन्होंने पठानो में भी अनेक गिलजई मुखियाओं को पटा लिया| तालिबान को भी वार्ता और समझौते की पुडि़या दे दी| उन्होंने बादशाह ज़ाहिरशाह के परिवार को भी अपने पक्ष में बनाए रखा| ज़ाहिरशाह के बेटे मीर वाइज़ अब भी महल में ही रहते हैं और पोते मुस्तफा जाहिर को उन्होंने बड़ा सरकारी पद दे रखा है| दूसरे शब्दों में उन्होंने अफगानों के हर तबके को अपने पक्ष में करने की कोशिश की है |</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"><br />
</span></div><div style="text-align: justify;"><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;"> करज़ई की जीत का चौथा कारण यह है कि पिछले साल भर में उन्होंने कई बार अमेरिका और उसकी फौजी कार्रवाइयों की खुले-आम आलोचना की है| जब-जब नाटो फौजों ने बेकसूर नागरिकों पर जान-बूझकर या अनजाने ही हमला बोला, करज़ई ने आम लोगों की आवाज़ में आवाज़ मिलाई| जो बातें बबरक कारमल और नजीबुल्लाह सोवियत फौजों के बारे में दबी जुबान से करते थे, वही करज़ई ने खुले-आम की| इससे उन्हें जनता की सहानुभूति भी मिली और यह छवि भी बनी कि वे अमेरिका की कठपुतली नहीं हैं| करज़ई के जमे रहने और जीतने का पांचवा कारण यह है कि वे स्वभावत: लोकतान्त्रिक हैं, विनम्र हैं, नरमदिल हैं| पिछले ढाई सौ साल के इतिहास में करज़ई ऐसे पहले अफगान शासक हैं, जिन्होंने अपने विरोधियों की हत्या नहीं की या उन्हें पुले-चर्खी जेल की हवा नहीं खिलाई| उनकी यह कमजोरी ही उनकी ताकत बन गई है| उनके मंत्र्ि-मंडल में कई सदस्य ऐसे हैं, जो उनके विरोधी 'जब्हे-मिल्ली' (राष्ट्रीय मोर्चे) के नेता हैं| कई ऐसे राज्यपाल हैं, जो अब्दुल्ला के जाने-माने समर्थक हैं| करज़ई के सेनापति जनरल बिस्मिल्लाह, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अमरूल्लाह सालेह, गुप्तचर विभाग तथा अन्य कई महत्वपूर्ण विभागों के पदाधिकारी गैर-पठान हैं| करज़ई सभी जातियों को साथ लेकर चलने की नीति चला रहे हैं| करज़ई के जीतने का छठा कारण यह भी है कि उन्होंने किसी भी महाशक्ति या पड़ौसी देश के साथ अपने संबंध खराब नहीं होने दिए| यह ठीक है कि आज का अफगानिस्तान पूरी तरह से अमेरिका और उसके साथियों पर निर्भर है लेकिन अमेरिका के धुर-विरोधी ईरान के साथ भी अफगानिस्तान के संबंध सहज हैं| काबुल के शासक प्राय: पाकिस्तान के साथ या तो जरूरत से ज्यादा घनिष्टता रखते हैं या उससे घृणा करते हैं| करज़ई ने यहां भी मध्यम मार्ग अपनाया है| यही रवैया चीन और रूस के प्रति है| भारत के साथ करज़ई ने विशेष संंबंध बनाए हैं| इसी का परिणाम है कि भारत ने अपने परंपरागत मित्र् 'उत्तरी गठबंधन' का साथ न देकर चुनाव में तटस्थता बनाए रखी| यही वह तत्व है, जिसने अमेरिका को मजबूर किया कि वह करज़ई का विरोध न करे| करज़ई के जीतने का सांतवा कारण है, उनकी अपनी स्वच्छ छवि ! न तो अफगान जनता और न ही अमेरिका ने कभी यह आरोप लगाया कि स्वयं करज़ई भ्रष्ट हैं| ऐसी स्थिति में करज़ई सबकी मज़बूरी बन गए हैं| अब देखना यही है कि करज़ई की जीत की घोषणा को उनके विरोध पचा पाते हैं या नहीं ? </span></div><div style="text-align: right;"><b><span class="Apple-style-span" style="font-size: small;">( लेखक जाने-माने अफगान-विशेषज्ञ हैं )</span></b></div></span><br />
<div style="font-size: 13px; margin-bottom: 1ex; margin-left: 1ex; margin-right: 1ex; margin-top: 1ex;"><div></div></div></span><br />
<div style="margin: 1ex;"><div></div></div>योगेन्द्र सिंह शेखावतhttp://www.blogger.com/profile/02322475767154532539noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-519350388769330035.post-51322233015070216012010-07-17T00:19:00.000+05:302010-07-17T00:19:59.889+05:30भाजपा को बचाएगा नया हिंदुत्व<div style="text-align: center;"><b><span style="font-size: large;">दैनिक भास्कर (दिल्ली)</span></b></div><br />
<div style="text-align: center;"><b>2 सितंबर 2009</b></div><br />
<div style="text-align: center;"><span style="font-size: large;"><b>भाजपा को बचाएगा नया हिंदुत्व</b></span></div><br />
<div style="text-align: right;"><b>डॉ. वेदप्रताप वैदिक</b></div><br />
<div style="text-align: justify;"> अगर आज भाजपा बिखर जाए तो क्या होगा ? देश का बड़ा अहित हो जाएगा| स्वयं प्रधानमंत्री ने यह चिंता व्यक्त की है| वे देश का रथ चला रहे हैं| रथ का दूसरा पहिया टूट जाए तो रथ चलेगा क्या ? रथ का यह दूसरा पहिया हिल जरूर रहा है लेकिन यह इतना कमजोर नहीं है कि टूट जाए| इसका हश्र वह नहीं हो सकता, जो जनता पार्टी, स्वतंत्र् पार्टी या संसोपा का हुआ| ये पार्टियां या तो नेता-आधरित पार्टियॉं थीं या तदर्थ हल की पार्टियॉं थीं| संसोपा के पीछे जबर्दस्त विचारधारा जरूर थी लेकिन डॉ. राममनोहर लोहिया के पर्दे से हटते ही यह पार्टी भी नेपथ्य में चली गई| वह नेताओं की पार्टी थी| उसमें हर कार्यकर्त्ता छोटा-मोटा नेता था| भाजपा की खूबी यह है कि इसके पास विचारधारा भी है और तपस्वी कार्यकर्ताओं की फौज भी| इसमें नेता नहीं हैं| जो नेता दिखाई पड़ते हैं, वे भी कार्यकर्ता ही हैं| यदि इस पार्टी में सचमुच नेता होते तो यह कभी की टूट जाती| मौलिचंद्र शर्मा हों या बलराज मधोक, वीरेंद्र सकलेचा हों या शंकरसिंह वाघेला, उमा भारती हों या कल्याण सिंह, गोविंदाचार्य हों या जसंवतसिंह- सब के सब खुद ही अलग-थलग पड़ गए| कोई भी जनसंघ या भाजपा का बाल भी बांका नहीं कर पाया| यहां तक कि लालकृष्ण आडवाणी जैसा महाप्रतापी नायक भी मन मसोस कर रह गया| जिसके पुण्य-प्रताप से भाजपा के दो से सौ सांसद हो गए, वह भी पार्टी को तोड़ नहीं पाया| इसीलिए भाजपा आज भी 'औरों से अलग' (पार्टी विथ ए डिफरेंस) है| इसका टूटना मुश्किल है और इसका खत्म होना लगभग असंभव !<br />
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भाजपा का खत्म होना इसलिए असंभव है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसकी रीढ़ है और हिंदुत्व इसकी विचारधारा ! अपनी समस्त कमज़ोरियों के बावजूद दुनिया में ऐसे कितने संगठन हैं, जिनकी तुलना संघ से की जा सके ? जहां तक हिंदुत्व का सवाल है, वह चाहे जो बाना पहनकर आए, भारत में उसकी अपील सदा बनी रहेगी| गांधी, जिन्ना, बादशाह खान, लोहिया और डांगे भी उससे अछूते नहीं रहे| क्या हिंदुत्व के बिना भारत की कल्पना की जा सकती है ? जैसे कांग्रेस भारत की अजर-अमर पार्टी है, वैसे ही भाजपा भी रहेगी| इसीलिए असल सवाल यह नहीं है कि भाजपा रहेगी या नहीं रहेगी बल्कि यह है कि क्या वह दुबारा सत्ता में आ पाएगी ?<br />
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उसके नेताओं को दुबारा सत्ता में आना दुश्वार लग रहा है| यह दुश्वारी ही फूट-फूटकर बह रही है| कभी वह जिन्ना का रूप धारण कर लेती है तो कभी पटेल का| कभी वह कंधार बन जाती है तो कभी संसद में नोटों की गडि्रडयां| संघ कहता है, हम भाजपा में कोई हस्तक्षेप नहीं करते और एक अ-नेता कहता है कि भाजपा को संघ अपने शिकंजे में कस ले| असली झगड़ा यही है| द्वंद्व यही है| पेंच यही है| इस पेंच को खोले बिना भाजपा जहां खड़ी है, वहीं खड़ी रह जाएगी या उससे भी नीचे खिसक जाएगी| आठ राज्य सरकारें और 116 सांसद पलक झपकते अंतर्ध्यान हो सकते हैं| भाजपा में नेता कई हैं लेकिन आडवाणी जैसा कौन है ? अच्छी या बुरी, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय छवि किसकी है ? और आडवाणी को हटा देने पर भाजपा क्या अपने अन्तर्द्वंद से मुक्त हो जाएगी ? ज्यों-ज्यों भाजपा बढ़ेगी, गैर-स्वयंसेवकों का अनुपात भी बढ़ेगा| अभी संघ अपने बूढ़े स्वयंसेवकों से भिड़ रहा है| जब जवान गैर-स्वयंसेवक शीर्ष पर होगे तो क्या होगा ? <br />
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संघ का कहना है कि भाजपा इसीलिए पिछड़ी कि उसने हिंदुत्व को खूंटी पर टांग दिया| सत्ता में बने रहने के लिए धारा 370, समान सिविल कोड और राम मंदिर को दरी के नीचे सरका दिया| यहां तक कि नरेंद्र मोदी को दंडित करने की पेशकश की| पाकिस्तान की दाढ़ी में हाथ डाला| कारगिल के अपराधी से हाथ मिलाया| मदरसों को थपथपाया| राम मंदिर नहीं बनाया| हिंदी, हिंदू और हिंदुस्थान-तीनों को भूल गए| बात ठीक है | यह सब हुआ लेकिन प्रश्न यह है कि जो लोग 50-50 साल तक संघ के स्वयंसेवक रहे, वे रातों-रात कैसे बदल गए ? अटलजी तो अटलजी, आडवाणीजी को क्या हो गया ? वे जिन्ना के प्रशंसक कैसे बन गए ?<br />
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भाजपा के नेता इन प्रश्नों पर मौन दिखाई देते हैं लेकिन ऐसा नहीं है| वे बोलते हैं लेकिन दबी जुबान से ! कुछ जुबान भी नहीं खोलते| अंदर ही अंदर घुटते हैं| वे पूछते हैं कि बताइए, हम राजनीतिक दल हैं या भजन-मंडली ? क्या जिदंगी भर हम दरियां बिछाते रहें और झांझ कूटते रहें ? यदि हमें सत्ता में नहीं बैठना है तो हम राजनीतिक पार्टी ही क्यों हैं ? हम सांस्कृतिक संगठन ही क्यों न बने रहें ? हम चुनाव क्यों लड़ें ? सरकार क्यों बनाएं ? धारा 370, समान सिविल कोड और राम मंदिर हम नहीं छोड़ते तो सरकार कैसे बनाते ? राम मंदिर छोड़ने का दुख है लेकिन उसे छोड़े बिना सत्ता के मंदिर में कैसे बैठते ? 22 राजनीतिक दलों का गठबंधन कैसे खड़ा करते ? अगर हम हिंदुत्व पर डटे रहते तो संसद में साधारण बहुमत बनाना भी असंभव होता| हिंदुत्व के नाम पर यदि सत्ताप्रेमी पार्टिया भी साथ नहीं आती हैं तो क्या सामान्य जनता आ जाती ? क्या केवल 20 प्रतिशत वोट और 200 सांसदों से कोई सरकार बन सकती है ? क्या आप किसी ऐसे क्षण की कल्पना कर सकते हैं, जब भाजपा को 40-45 प्रतिशत वोट और 300 सीटें मिल सकें ? यह तो शायद तभी हो सकता है कि जबकि भारत के सिर पर दूसरे विभाजन की तलवार लटकने लगे या देश में हजार गोधरा एक साथ हो जाएं ? सत्ता में आने के लिए क्या हमें इतनी बुरी बात कभी सोचनी भी चाहिए ? तो क्या करें ? सबसे पहले यह तय करें कि हमें सत्ता में आना है या नहीं ? यदि आना है तो सत्ता के तर्कों को समझें|<br />
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यह मामला सिर्फ अटलजी और आडवाणीजी का ही नहीं है| सबका है| नेहरू का और जिन्ना का भी| हिंदू-मुस्लिम एकता के अलमबरदार नेहरू को द्विराष्ट्रवाद के आगे घुटने टेकने पड़े और मुस्लिम सांप्रदायिकता के सिरमौर जिन्ना को पाकिस्तान बनने के बाद शीर्षासन करना पड़ा| सत्ता में आने और उसमें बने रहने के लिए क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़ते ? ज़रा कांग्रेस का इतिहास देखें| 1885 से अब तक उसने इतने पल्टे खाए हैं कि वह किसी बहरूपिए से कम नहीं रह गई है| पहले अंग्रेज का समर्थन, फिर आंशिक और बाद में पूर्ण आज़ादी की मांग, पहले गांधीवाद, फिर नेहरू का समाजवाद और फिर राजीव और नरसिंहराव का उदारवाद और अब वंशवाद ! यदि कांग्रेस में इतना लचीलापन नहीं होता तो वह कब की ही इतिहास के खंडहरों में समा जाती| उसकी एक ही विचारधारा है - सत्ता-प्राप्ति ! सत्ता से अगर कुछ सेवा हो जाए तो बहुत अच्छा| वरना सत्ता से पत्ता और पत्ता से सत्ता का अनंत खेल तो चलता ही रहता है| यही खेल बि्रटेन, अमेरिका या योरोपीय देशों में चलता है| वहां पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों एक ही रथ के दो पहिए होते हैं, पति-पत्नी की तरह ! कभी इसकी टोपी उसके सिर और कभी उसकी टोपी इसके सिर ! विचारधारा कहीं भी आड़े नहीं आती| विचारधारावाला कौनसा दल अब दुनिया में बचा है ? मुसोलिनी, हिटलर, स्तालिन, माओ की पार्टियॉं कहॉं हैं ?<br />
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भाजपा के नेता इस तथ्य को खूब समझते हैं लेकिन सिर्फ उनके बदलने से क्या होगा ? उनकी बात जब तक संघ के गले नहीं उतरेगी, वे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते ? ऐसा नहीं है कि संघ जड़ है| जिन्ना के बावजूद आखिर आडवाणी की पुन: प्रतिष्ठा कैसे हुई ? जसवंत के जिन्ना पर संघ क्यों नहीं बोला ? उसने भाजपा से अधिक परिपक्वता का परिचय दिया| संघ और भाजपा का संबंध नाभि-नाल संबंध है| संघ के बिना भाजपा शून्य है लेकिन अगर वह पुरानी लीक पर ही चलती रही तो वह अंततोगत्वा क्या स्वयं शून्य नहीं बन जाएगी याने संघ और भाजपा को एक साथ बैठकर चिंतन करना होगा| हिंदुत्व की पुनर्परिभाषा और नवीनीकरण समय की मांग है| क्या हिंदुत्व वही है, जो मुस्लिम लीग के जवाब में पैदा हुआ था ? 1906 के पहले तो किसी ने 'हिंदुत्व' शब्द भी नहीं सुना था| क्या राजा राममोहन राय, महर्षि दयानंद, विवेकानंद और अरबिन्दो का 'हिंदुत्व' और सावरकर का हिंदुत्व एक-जैसा है ? क्या हिंदुत्व की शुरूआत मुगल-काल से ही होती है, क्या गज़नी और गोरी के बाद ही होती है? क्या हिंदू-मुसलमान के मुद्रदे ही हिंदुत्व के मुद्रदे हैं ? क्या इस्लाम के पहले हिंदुत्व नहीं था ? क्या मुस्लिम-विद्वेष ही हिंदुत्व का एकमात्र् आधार है ? यदि भारत और पाकिस्तान एक रहते तो क्या वह अखंड भारत हो जाता ? क्या कभी हमने उस हिंदू भारत के बारे में भी सोचा है, जो तिब्बत (त्र्िविष्टुप) से मालदीव और अराकान (बर्मा) से खुरासान (ईरान) तक फैला हुआ था| हम इस आर्यावर्त्त में एकता, शांति और समृद्घि चाहते हैं या नहीं ? यदि चाहते हैं तो क्या हम अपनी घड़ी की सुई को 1947 पर ही अटकाए रखेंगे ? क्या हिंदुत्व का मतलब केवल धारा-370, समान सिविल कोड और राम मंदिर ही है ? क्या हमारे पास कोई ऐसी रामबाण औषधि नहीं है, जो हमारी राजनीति को हिंदू-मुसलमान और भारत-पाक के अजीर्ण से मुक्त करवा सके| क्या हिंदुत्व को हम किसी से नत्थी किए बिना नहीं समझ सकते ? क्या हिंदुत्व भारतीयता का पर्याय नहीं हो सकता, जिसमें सारे मज़हब, सारे दक्षिण एशियाई देश और उनके सारे लोग बिना किसी भेद-भाव के शामिल हो सकें ? मैं हिदुत्व को सिकोड़ने नहीं, फैलाने की बात कर रहा हूं| यदि हिंदुत्व अपने इतिहास और भूगोल में जरा फैल जाए तो भाजपा को वास्तविक और उत्तम राजनीतिक दल बनने में जबर्दस्त सफलता मिल सकती है| यह नया हिंदुत्व यथास्थितिवादी और सिर्फ पीछेदेखू नहीं होगा| यह परंपरा और परिवर्तन का सुंदर समन्वय होगा| यह कोरे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात नहीं करेगा| यह आर्थिक और सामाजिक राष्ट्रवाद का भी पुरोधा होगा| उसमें अपने 'समग्र राष्ट्रवाद' से भी आगे देखने की क्षमता होगी| वह भारत की सनातन विश्व-चेतना का प्रामाणिक प्रतिनिधि होगा| </div><br />
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</div>योगेन्द्र सिंह शेखावतhttp://www.blogger.com/profile/02322475767154532539noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-519350388769330035.post-68808530844220201952010-07-17T00:09:00.000+05:302010-07-17T00:09:19.992+05:30डॉ• वेदप्रताप वैदिक<div style="text-align: justify;">इस ब्लॉग पर श्री वेद प्रताप वैदिक जी के लेख प्रकाशित किये जायेंगे |</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><b>वेद प्रताप वैदिक : परिचय</b></span><br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaDeus8uONdiq6c69sWL4Z-OqYtbDxI6biSIhbmIcpBwbCM5qfDUc59ZlDZNIfXXDnGtcE_HUhe0BCsYzXRuzRak6bGk-9JKrC6ZvhIv1M_beINkdWyKOxpG_2bDVg4itnWmgKxBFS8caA/s1600/Ved_pratap_vedik.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaDeus8uONdiq6c69sWL4Z-OqYtbDxI6biSIhbmIcpBwbCM5qfDUc59ZlDZNIfXXDnGtcE_HUhe0BCsYzXRuzRak6bGk-9JKrC6ZvhIv1M_beINkdWyKOxpG_2bDVg4itnWmgKxBFS8caA/s320/Ved_pratap_vedik.jpg" /></a><span style="font-size: large;"><b> </b></span></div><div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;">डॉ• वेदप्रताप वैदिक हिन्दी के वरिष्ट पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक, पटु वक्ता एवं हिन्दी प्रेमी हैं। उनका जन्म एवं आरम्भिक शिक्षा मध्य प्रदेश के इन्दौर नगर में हुई। हिन्दी को भारत और विश्व मंच पर स्थापित करने के की दिशा में सदा प्रयत्नशील रहते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">वेद प्रताप वैदिक का जन्म 30 दिसम्बर 1944 को हुआ। स्कूल में ये हमेशा प्रथम स्थान पाते रहे। 1971 में में उन्होंने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यायल से पीएचडी पूरी की। विषय था अंतराष्ट्रीय संबंध्। <b><span style="color: maroon;">अपनी पीएचडी की थीसीस हिंदी में लिखने के कारण वैदिक को संस्थान से निकाल दिया गया। </span></b>इस पर पूरे देश ने तीखी प्रतिक्रिया दर्ज कराई। भारतीय संसद में इस विषय पर काफी चर्चा हुई। आखिरकर वेद प्रताप वैदिक ने जंग जीती। छात्रों को यह अधिकार प्रदान किया गया कि ये अपनी मातृभाषा में पीएचडी की थीसिस लिख सकते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">उसके बाद 1962 से वेद प्रताप वैदिक भारतीय और विदेशी टेलीविजन पर कई कार्यक्रमों में आने लगे। एक दर्जन से ज्यादा अखबारों ने उनके कालम प्रकाशित करने शुरू कर दिये। कई विश्वविद्यालयों की तरफ से राजनीति पर बोलने के लिए उन्हें आमंत्रित किया जाने लगा। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के मोती लाल नेहरू कालेज में राजनीति शास्त्र पढ़ाना शुरू किया।</div><div style="text-align: justify;"><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span id="goog_847076249"></span><span id="goog_847076250"></span></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj70XFp0w_mR9p6XquLYiZwNsgzSwaHQD_0-vkFCdjgl0mt_Dh-19Jc_Hdye4mv6UhbSLZkJ9qXKFCOe_-t8I3bdBy8dl_-f9ZCFK8IgWSiTVgrzk7MrFUOO-SsBrfWv7bqO0ig914rak0Z/s1600/Ved_Pratap_Vaidik_(Right)_and_Afghnistan_Prez_Hamid_Karzai_(Left).JPG" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj70XFp0w_mR9p6XquLYiZwNsgzSwaHQD_0-vkFCdjgl0mt_Dh-19Jc_Hdye4mv6UhbSLZkJ9qXKFCOe_-t8I3bdBy8dl_-f9ZCFK8IgWSiTVgrzk7MrFUOO-SsBrfWv7bqO0ig914rak0Z/s320/Ved_Pratap_Vaidik_(Right)_and_Afghnistan_Prez_Hamid_Karzai_(Left).JPG" /></a></div><br />
</div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: maroon;">वैदिक रशियन, परशियन, अंग्रेजी, संस्कृत, हिंदी के अलावा कई अन्य भारतीय भाषाएं जानते हैं। </span></b>अपने शोध के दौरान वेद प्रताप वैदिक ने न्यूयार्क, लंदन और मास्को के शिक्षण संस्थानों में अध्ययन किया। अफगानिस्तान का कोना-कोना उन्होंने परख लिया। विदेशी मामलों के विशेषज्ञ होने के कारण वैदिक भारतीय मंत्रियों और कई विदेशी नेताओं की जरूरत बन गए। 1999 में वो सयुंक्त राष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य भी बने।</div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">वेद प्रताप वैदिक अब तक करीबन 60 देशों की यात्रा कर चुके हैं। वो भारतीय सरकार की कई सलाहकार समितियों के सदस्य भी रह चुके हैं। इस समय वो काउंसिल फार इंडियन फारन पालिसी और भारतीय भाषा सम्मेलन के चैयरमैन हैं। <b><span style="color: maroon;">वेद प्रताप वैदिक ने अफगानिस्तान से संबंधित दो पुस्तकें और 80 लेख लिखे हैं। उनका अफगानिस्तान के अध्यक्ष, प्रधानमंत्री सहित कई प्रमुख नेताओं से सीधा संपर्क है।</span></b></div><div style="text-align: justify;"><br />
</div><div style="text-align: justify;">वैदिक जी ने एक लघु पुस्तिका <b>विदेशों में अंग्रेजी</b> की रचना की है जिसमें बडे तर्कपूर्ण ढंग से बताया गया है कि कोई भी स्वाभिमानी और विकसित राष्ट्र अंग्रेजी में नहीं बल्कि अपनी मातृभाषा में सारा काम करता है। उनका विचार है कि भारत में अनेकानेक स्थानों पर अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण ही आरक्षण की जरूरत पड रही है।<br />
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</div><div style="text-align: justify;"><b><span style="color: maroon;"> </span></b></div><div style="text-align: justify;"><b><span style="font-size: large;"> पुस्तकें :</span></b></div><div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><a href="http://books.google.co.in/books?id=Y6BL6LB2jDMC&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false%20">महाशक्ति भारत (आभासी जगत पर पढने के लिए क्लिक करें )</a></div><div style="color: black;">अंग्रेजी हटाओ: क्यों और कैसे</div><div style="color: black;">एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका<br />
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</div><div style="color: black;"><span style="font-size: large;"><b>पुरस्कार :</b></span></div><div style="color: black;">विश्व हिंदी सम्मान</div><div style="color: black;">पत्रकारिता भूषण सम्मान<br />
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</div><div style="text-align: justify;"></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: large;"><b>अधिक जानने के लिए यह भी देखें :</b></span></div><div style="text-align: justify;"><a href="http://www.vpvaidik.com/about">http://www.vpvaidik.com/about (officail website ) </a></div><div style="text-align: justify;"><a href="http://www.blogger.com/%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%20%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%AA%20%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%95%20%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%80%20%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%AB%E0%A4%BE%E0%A4%87%E0%A4%B2%20%28%20http://www.vpvaidik.com/about/profile-hindi%20%29">वेद प्रताप वैदिक हिंदी प्रोफाइल ( http://www.vpvaidik.com/about/profile-hindi )</a><br />
<a href="http://simple.wikipedia.org/wiki/Ved_Pratap_Vaidik">http://simple.wikipedia.org/wiki/Ved_Pratap_Vaidik</a><br />
<a href="http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%AA_%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%95"></a><a href="http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%AA_%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%95">http://hi.wikipedia.org/wiki/वेद_प्रताप_वैदिक</a><br />
<a href="http://www.khaslog.com/archives/405">http://www.khaslog.com/archives/405</a><br />
<a href="http://www.hindu.com/mp/2004/11/04/stories/2004110401000100.htm">http://www.hindu.com/mp/2004/11/04/stories/2004110401000100.htm</a></div>योगेन्द्र सिंह शेखावतhttp://www.blogger.com/profile/02322475767154532539noreply@blogger.com0